Monday, August 3, 2009

खामोश हुई माकपा की बागी आवाज


माकपा के वरिष्ठ नेता और परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती के निधन के साथ ही माकपा की एक बागी आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई है। सुभाष को पार्टी की सुधारवादी पीढ़ी का अगुआ माना जाता है। अपनी विवादास्पद टिप्पणियों के लिए मशहूर इस नेता ने हमेशा कार्ल मार्क्स के उन सिद्धांतों के खिलाफ आवाज उठाई जो मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में काफी हद तक अप्रासंगिक हो चुके थे। वह चाहे केंद्र की पिछली यूपीए सरकार में शामिल होने का मुद्दा हो, खेती की जमीन के अधिग्रहण का सवाल हो या फिर तारापीठ मंदिर में पूजा-पाठ पर उठा बवाल हो-सुभाष अपनी खरी टिप्पणियों से हमेशा पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से दो-दो हाथ करने के मूड में नजर आए।
माकपा में वे पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु को अपना राजनीतिक गुरू मानते थे। बसु के वरदहस्त की वजह से ही माकपा और उसकी अगुवाई वाली राज्य सरकार में रहते हुए उसकी गलत नीतियों के खिलाफ लगातार आवाज उठाने के बावजूद उनके खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई थी। वर्ष 2006 में हुए बीते विधानसभा चुनाव के मौके पर माकपा नेताओं का एक बड़ा धड़ा उनको टिकट दिए जाने के खिलाफ था। बावजूद इसके अंतिम मौके पर उनको टिकट मिल गया। चक्रवर्ती ने बसु से अपनी नजदीकी और उनके प्रति निष्ठा को कबी छिपाने की कोई कोशिश नहीं की। हकीकत यही है कि अपने बागी तेवरों और खरी टिप्पणियों के चलते कई बार खुद अपने और पार्टी के लिए मुसीबत व विवाद पैदा करने वाले सुभाष बसु के अलावा पार्टी के किसी नेता को कोई तरजीह नहीं देते थे। सुभाष का अपने इलाके में व्यापक जनाधार था। वे इलाके के तमाम क्लबों के अलावा कम से कम 120 दुर्गापूजा समितियों के भी संरक्षक थे। इसी जनाधार की वजह से वे लगातार चुनाव जीतते रहे।
कार्ल मार्क्स ने भले कहा हो कि धर्म लोगों के लिए अफीम के समान है, सुभाष का इस पर कोई भरोसा नहीं था। यही वजह है कि उनके तारापीठ जा कर पूजा-अर्चना करने पर जब पार्टी में बवाल मचा तो उन्होंने साफ कहा कि वे पहले हिंदू हैं, उसके बाद ब्राह्मण और फिर वामपंथी। प्रदेश समिति से पोलित ब्यूरो तक गूंजने के बावजूद इस मामले में सुभाष के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसी साल लोकसभा चुनाव के मौके पर एक निजी टीवी चैनल से बातचीत में उन्होंने कह दिया था कि साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए कांग्रेस का साथ जरूरी है और माकपा को वर्ष 2004 में केंद्र की यूपीए सरकार में शामिल होना चाहिए था। उनकी इस टिप्पणी पर भी काफी बवाल मचा और माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु को एक बयान जारी कर सफाई देनी पड़ी कि यह सुभाष के निजी विचार हैं और माकपा की विचारधारा से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
सुभाष चक्रवर्ती उद्योगों के लिए जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ भी मुखर रहे। इसी तरह उन्होंने नंदीग्राम में पुलिस की फायरिंग और उसके आठ महीने बाद माकपा काडरों की ओर से इलाके के पुनर्दखल के खिलाफ भी खुल कर आवाज उठाई थी। इससे पहले वे क्रिकेट एसोसिएशन आफ बंगाल (सीएबी) के चुनाव में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से भी दो-दो हाथ कर चुके थे। मुख्यमंत्री ने तब सीएबी अध्यक्ष पद के लिए कोलकाता के तत्कालीन पुलिस आयुक्त प्रसून मुखर्जी के लिए मैदान में उतारा था। लेकिन सुभाष ने इस फैसले की सरेआम आलोचना करते हुए उनके प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार जगमोहन डालमिया का समर्थन किया था। उस चुनाव में डालमिया ही जीते थे।
बीते साल केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने और उसी मुद्दे पर लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकालने के मुद्दे पर असंतोष और नाराजगी तो बंगाल के तमाम कामरेडों में थी। लेकिन इस नाराजगी को स्वर देने की हिम्मत दिखाई सिर्फ सुभाष ने। उन्होंने इसके लिए सरेआम पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को जिम्मेवार ठहराया। सुभाष चक्रवर्ती पार्टी फंड में चंदा जुटाने और रैलियों में भीड़ जुटाने में भी माहिर थे। कोई 23 साल पहले कोलकाता में होप 86 नामक सांस्कृतिक कार्यक्रम के बैनर तले फिल्मी सितारों को नचा कर भी उन्होंने काफी सुर्खियां और विवाद बटोरे थे।
सुभाष के राजनीतिक कैरियर की शुरूआत से ही ऐसे न जाने कितने ही प्रसंग उनसे जुड़े हैं जब किसी गलत काम या नीतिगत गलतियों के लिए उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को सरेआम कटघरे में खड़ा कर दिया। अब उनके निधन से माकपा की बागी आवाज खामोश हो गई है। माकपा में अब सुभाष चक्रवर्ती जैसा दूसरा कोई नेता नहीं बचा है जो गलत फैसलों पर उंगली उठाने का नैतिक साहस दिखाए। ऐसे में सुभाष की मौत किसी वामपंथी नेता की नहीं बल्कि एक विचारधारा की मौत कही जा सकती है।

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