Tuesday, October 6, 2009

अभी जारी है सुर का सफर


वे भले अपनी उम्र के नौवें दशक में हों, उनके सुरों का सफर अभी भी जस का तस है. आवाज में वही जादू और अपनी धुन के पक्के. जी हां, इस शख्स का नाम है प्रबोध चंद्र दे. लेकिन उनके इस नाम की जानकरी कम लोगों को ही है. ऐ भाई जरा देख के चलो और बरसात के न तो कारवां की तलाश है--. और ऐसे ही हजारों हिट गीत देने वाले प्रबोध को पूरी दुनिया मन्ना दे के नाम से जानती है. कोई 65 साल पहले 1943 में सुरैया के साथ तमन्ना फिल्म से अपनी गायकी का आगाज करने वाले मन्ना दे ने उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने हिंदी के अलावा बांग्ला और मराठी गीत भी गाए हैं. और वह भी बड़ी तादाद में. अब बढ़ती उम्र की वजह से सक्रियता तो पहले जैसी नहीं रही, लेकिन आवाज का जादू जस का तस है. संगीत की दुनिया में वे सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते रहे. रास्ते में सम्मान भी खुद-ब-खुद मिलते रहे. वर्ष 2005 में उनको पद्मभूषण से नवाजा गया. बीते साल पश्चिम बंगाल सरकार ने भी संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए उनको सम्मानित किया था. अब उनको दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया है.
दिलचस्प बात यह है कि कोलकाता में अपने कालेज के दिनों में मन्ना दे कुश्ती और फुटबाल के दीवाने थे. उसके बाद वे लंबे समय तक इस दुनिधा में रहे कि बैरिस्टर बनें या गायक. आखिर में अपने चाचा और गुरू कृष्ण चंद्र दे से प्रभावित होकर उन्होंने गायन के क्षेत्र में कदम रखा. मन्ना दे का बचपन किसी आम शरारती बच्चे की तरह ही बीता. दुकानदार की नजरें बचा कर मिठाई और पड़ोसी की नजरें बचा कर उसकी बालकनी से अचार चुराना उनकी शरारतों में शुमार था. अपने चाचा के साथ 1942 में मुंबई जाने पर उन्होंने पहले उनके और फिर सचिन देव बर्मन के साथ सहायक के तौर पर काम किया. मन्ना कहते हैं कि 'वे मुफलिसी और संघर्ष के दिन थे. शुरआत में बालीवुड में पांव टिकाने भर की जगह बनाने के लिए मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा.' वे बताते हैं कि '1943 में सुरैया के साथ तमन्ना फिल्म में गाने का मौका मिला. लेकिन उसके बाद भी काम नहीं मिला. बाद में धीरे-धीरे काम मिलने लगा.'
मन्ना हिंदी फिल्मों में संगीत के स्तर में आई गिरावट से बेहद दुखी हैं. वे कहते हैं कि'मौजूदा दौरा का गीत-संगीत अपनी भारतीयता खे चुका है. इसके लिए संगीत निर्देशक ही जिम्मेवार हैं.' मन्ना दे अपने जीवन में धुन के पक्के रहे हैं. किसी को जुबान दे दी तो किसी भी कीमत पर अपना वादा निभाते थे. लेकिन एक बार अगर किसी को ना कह दिया तो फिर उनको मनाना काफी मुश्किल होता था.
अपने पुराने दिनों को याद करते हुए मन्ना दे कहते हैं कि 'मेरे माता-पिता चाहते थे मैं पढ़-लिख कर बैरिस्टर बनूं. उन दिनों इसे काफी सम्मानजनक कैरियर माना जाता था .' वे बताते हैं कि 'मैं आज जिस मुकाम पर हूं, उसमें मेरे चाचा कृष्ण चंद्र दे की अहम भूमिका रही है. वह चूंकि अपने समय के एक माने हुए संगीतकार थे इसलिए हमारे घर संगीत जगत के बड़े-बड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता था. कम उम्र में ही चाचा की आंखों की रोशनी चली जाने की वजह अक्सर मैं उनके साथ ही रहता था.' वे बताते हैं कि'संगीत की पहली तालीम मुझे अपने चाचा से ही मिली. खयाल के अलावा मैंने रवींद्र संगीत भी सीखा। उन दिनों चाचा के साथ मैं भी न्यू थिएटर आया जाया करता था. इसी वजह से वहां उस दौर के जाने-माने गायकों को नजदीक से देखने-सुनने का मौका मिला। लेकिन तब तक संगीत को कैरियर बनाने का ख्याल भी मन में नहीं आय़ा था.'
अपने चाचा के साथ मुंबई जाना मन्ना दे के जीवन में एक निर्णायक मोड़ बन गया. मुंबई पहुंचने के कुछ दिनों बाद संगीतकार एच.पी. दास ने अपने साथ सहायक के रूप में रख लिया. कुछ दिनों बाद कृष्ण चंद्र दे को फिल्म 'तमन्ना' में संगीत निर्देशन का मौका मिला. फिल्म में एक गीत था 'जागो आई उषा'. यह गीत एक भिखमंगे और एक छोटी लड़की पर फिल्माया जाना था। भिखमंगे वाले हिस्से को गाने के लिए मन्ना को चुना गया. छोटी लड़की के लिए गाया सुरैया ने. वैसे, मन्ना दे की पहली फिल्म थी रामराज्यजिसके संगीतकार विजय भट्ट थे. उसके बाद लंबे समय तक कोई काम नहीं मिला तो उनके मन में कई बार कोलकाता लौट जाने का ख्याल आया. नाउम्मीदी और मुफलिसी के उसी दौर में 'मशाल' फिल्म में गाया उनका गीत 'ऊपर गगन विशाल' हिट हो गया और फिर धीरे-धीरे काम मिलने लगा.
मौजूदा दौर की गलाकाटू होड़ की तुलना उस दौर से करते हुए मन्ना याद करते हैं कि'फिल्मी दुनिया में उस समय भी काफी प्रतिद्वंद्विता थी, लेकिन वह आजकल की तरह गलाकाटू नहीं थी. उस समय टांगखिंचाई के बदले स्वस्थ प्रतिद्वंद्विंता होती थी. हम लोग दूसरे गायकों के बढ़िया गीत सुन कर खुल कर उसकी सराहना भी करते थे और उससे सीखने का प्रयास भी.' वे बताते हैं कि 'काम तो सबसे साथ और सबके लिए किया लेकिनबलराज साहनी और राज कपूर के लिए गाने की बात ही कुछ और थी. पृथ्वी राज कपूर से पहले से पहचान होने की वजह से राजकपूर से मुलाकात आसानी से हो गई. उसके बाद राज कपूर के जीने तक मेरे उनसे बहुत अच्छे संबंध रहे.'
संगीत ने ही मन्ना दे को अपने जीवनसाथी सुलोचना कुमारन से मिलवाया था. दोनों बेटियां सुरोमा और सुमिता गायन के क्षेत्र में नहीं आईं. एक बेटी अमेरिका में बसी है. पांच दशकों तक मुंबई में रहने के बाद मन्ना दे ने बंगलूर को अपना घर बनाया. लेकिन कोलकाता आना-जाना लगा रहता है. आप अब फिल्मों में ज्यादा क्यों नहीं गाते ? इस सवाल पर वे कहते हैं कि 'अब बहुत कुछ बदल गया है. न तो पहले जैसा माहौल रहा और न ही गायक और कद्रदान. लेकिन संगीत ने मुझे जीवन में बहुत कुछ दिया है. इसलिए मैं अपने अंतिम सांस तक इसी में डूबा रहना चाहता हूं.'
जाने-माने शास्त्रीय गायक पंडिय अजय चक्रवर्ती कहते हैं कि 'मन्ना दा (बांग्ला में बड़े भाई के लिए संबोधन) अपने जीते-जी एक किंवदंती बन चुके हैं. अपने कालजयी गीतों से उन्होंने लाखों संगीतप्रेमियों के दिलों में अलग जगह बना ली है.'

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