Saturday, October 24, 2009
महज एक ट्रेन नहीं, संस्कृति भी है मेट्रो
देश की पहली मेट्रो रेल शनिवार यानी 24 अक्तूबर को अपने सफर के 25 साल पूरे कर लिए हैं. वर्ष 1984 में इसी दिन पहली मेट्रो ट्रेन ने कोलकाता में धर्मतल्ला से भवानीपुर तक की दूरी तय की थी. अपनी चौथाई सदी के सफर में इस भूमिगत सेवा ने महानगर के लोगों की रहन-सहन में बदलाव तो किया ही है, इसकी संस्कृति भी काफी हद तक बदल दी है. मेट्रो की शुरूआत के बाद महानगर में जो नई संस्कृति विकसित होने लगी थी, वह अब युवास्था में पहुंच गई है. अब हाल में मेट्रो के विस्तार के बाद इसके पांच स्टेशन जमीन से ऊपर बने हैं. पहले सिर्फ दमदम और टालीगंज (अब महानायक उत्तम कुमार) ही जमीन पर थे और बाकी जमीन के भीतर.
देश में अपने किस्म की इस पहली परियोजना का शिलान्यास तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 29 दिसंबर, 1972 को किया था. इसका निर्माण कार्य 1972 में शुरू हुआ था. लेकिन महानगर के उत्तरी सिरे को दक्षिण से जोड़ने वाली इस परियोजना में जमीन अधिग्रहण जैसी बाधाओं की वजह से इस पर पहली ट्रेन 24 अक्तूबर,1984 को चली. उसके बाद इसे टालीगंज तक बढ़ाया गया. धन की कमी से से भी इसका काम प्रभावित हुआ. बाद में कोई छह बरसों तक विभिन्न वजहों से परियोजना लगभग ठप रही. आखिर में दमदम से टालीगंज तक 16.45 किमी की दूरी के बीच मेट्रो का सफर 1995 में शुरू हुआ. उस समय जमीन के लगभग सौ फीट नीचे सुरंग बना कर उसमें ट्रेन चलाना इंजीनियरिंग की सबसे बड़ी चुनौती माना गया था. अब इसी साल 22 अगस्त को टालीगंज के बाद पांच नए स्टेशन इसमें जुड़े हैं.
अपने तय समय और लागत के मुकाबले देरी और कई गुना खर्च से पूरी होने वाली इस परियोजना ने महानगर के लोगों के लिए परिवहन का मतलब ही बदल दिया. पहले बसों के अलावा ट्रामें ही कोलकाता में परिवहन का सुलभ साधन थीं. लेकिन सड़कों पर जाम की वजह से इस सफऱ में काफी वक्त लगता था. मेट्रो ने लोगों का वक्त बचाया. जो दूरी बसों के जरिए दो घंटे में पूरी होती थी, वह अब महज आधे घंटे में हो जाती है. इस भूमिगत ट्रेन ने लोगों की आदतें भी बदल डाली. पहले बसों और ट्रामों में सफऱ के दौरान लोगों को बीड़ी-सिगरेट पीने और जहां-तहां पान की पीक फेंकने की आदत थी. लेकिन मेट्रो में शुरू से ही इन चीजों पर पाबंदी लग थी. इस ट्रेन ने यात्रियों को काफी हद तक प्रदूषण से निजात दिला दी.
बीते 15 बरसों से मेट्रो में सफर करने वाले सरकारी कर्मचारी विमल कांति दास कहते हैं कि ‘मेट्रो ने हमारी उम्र में कई साल जोड़ दिए. पहले दफ्तर आने-जाने में ही कई घंटे लग जाते थे. अब यह कीमत समय बच जाता है.’ इसके अलावा प्रदूषण से मुक्ति भी मिल गई है. मेट्रो में सफऱ करने वाली एक महिला श्यामली कहती हैं कि ‘मेट्रो ने लोगों की आदतें बदल दी हैं. मेट्रो शुरू होने के बाद ही लोगों को समय की कीमत समझ में आई. पहले दफ्तर आने-जाने में समय तो ज्यादा लगता ही था, थकान भी बहुत होती थी. अब इन ट्रेनों में भीड़ के बावजूद लोग कुछ मिनटों के भीतर ही अपने मुकाम तक पहुंच जाते हैं.’ वे कहती हैं कि ‘मेट्रो का सफर तो टैक्सी के मुकाबले भी आरामदेह है. उससे बेहद सस्ता तो है ही.’
मेट्रो के पहले सफऱ के समय इसके चीफ इंजीनियर रहे अशोक सेनगुप्ता पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि ‘यह परियोजना उस समय इंजीनियरिंग की सबसे बड़ी और कठन चुनौती थी.’ वे बताते हैं कि ‘इस परियोजना की डिजाइन से लेकर इसमें इस्तेमाल तमाम उपकरण भारत में ही बने थे. इसके निर्माण के दौरान कई अप्रत्याशित चुनौतियों से जूझना पड़ा. लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी. धर्मतल्ला यानी एस्पलानेड से भवानीपुर (अब नेताजी भवन) के बीच जब पहली मेट्रो ट्रेन चली तो हमें लगा कि सारी मेहनत सफल हो गई.’ सेनगुप्ता भी कहते हैं कि मेट्रो ने लोगों की आदतों में बदलाव आया है. सरे राह थूकने वाले लोग मेट्रो में थूकने से परहेज करते हैं.
यानी एक चौथाई सदी के अपने सफर में इस रेल ने सिर्फ लोगों का समय ही नहीं बचाया, बल्कि उनकी कई बुरी आदतें भी बदल दी हैं. और अब तो इस मेट्रो को देखते, इसमें सफर करते और इसकी संस्कृति में पली एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है.
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हम छोटे शहरो मे रहने वालों के लिये अभी भी यह एक अजूबा है ।
ReplyDeleteदेश के किसी हिस्से में इसने चौथाई सदी पूरी कर ली और एक हिस्से को इसके बारे में कोई जानकारी तक नहीं .. आश्चर्य है !!
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