Tuesday, October 6, 2009
टूटे सपनों के साथ बेपहिया ज़िंदगी
प्रभाकर मणि तिवारी
‘एक छोटी कार के आने की सूचना ने हमारी ज़िंदगी में पंख लगा दिए थे। हम सबकी आंखों ने न जाने कितने ही सुनहरे सपने देखे थे। लेकिन बीते एक साल से तो हम अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल भी नहीं रह गए हैं। बस, यूं समझ लीजिए कि हम टूटे सपनों के साथ अपनी बेपहिया जिंदगी को घसीट रहे हैं……।’ सिंगुर के विकास पाखिरा यह कहते हुए कहीं अतीत में खो जाते हैं। टाटा मोटर्स की नैनो कार परियोजना के लिए जमीन के अधिग्रहण और संयंत्र का काम शुरू होते ही इलाके के लोगों की जिंदगी में मानो पंख लग गए थे। राजधानी कोलकाता से सटा हुगली जिले का यह अनाम-सा कस्बा रातों-रात महानगरीय रंग में रंगने लगा था। लोगों को जमीन की कीमत के एवज में लाखों रुपए मिले थे। इलाके में बैंकों की नई शाखाओं के अलावा कारों और ब्रांडेड कपड़ों के शोरूम तक खुलने लगे थे। लेकिन बीते साल ठीक दुर्गापूजा से पहले ही रतन टाटा ने नैनो परियोजना को सिंगुर से हटा कर गुजरात में लगाने का एलान कर दिया। उनके इस एलान से सपनों के पंख लगा कर उड़ते स्थानीय लोग एक झटके में जमीन पर आ गए थे। नैनो के जाने के एक साल बीतने के बावजूद लोग अब तक छोटी कार के बड़े सदमे से उबर नहीं सके हैं। यही वजह है कि इस साल भी दुर्गापूजा में सिंगुर में खामोशी पसरी रही।
नैनो संयंत्र परिसर अब इलाके की गाय-भैंसों का चारागह बन चुका है। खाली जमीन पर घास के जंगल पनप गए हैं। परियोजना के सहारे इलाके में होने वाले विकास के काम भी रातोंरात ठप हो गए हैं। संदीप दे भी उन्हीं लोगों में हैं जो इस संयंत्र में काम कर हर महीने दस हजार रुपए तक कमा लेते थे। लेकिन वे बेरोजगार हो गए। अब वे अपनी गाय चराते हैं। संदीप कहते हैं कि इस छोटी कार ने इलाके के तमाम लोगों को बड़े-बड़े सपने दिखाए थे। हम तो सिंगुर के आगे चल कर टाटानगर या पुणे की तर्ज पर विकसित होने की उम्मीद बांध रहे थे। लेकिन एक झटके में ही तमाम सपने मिट्टी में मिल गए।
संदीप और उनके दोस्त विकास पाखिरा साल भर बाद भी यह नहीं समझ सके हैं कि आखिर चूक कहां हुई? विकास कहते हैं कि आंदोलन तो होते ही रहते हैं। लेकिन इस पर समझौता भी तो हो सकता था। उनलोगों को इस बात का अफसोस है कि राज्य सरकार ने टाटा को रोकने का ठोस प्रयास नहीं किया। परियोजना के लिए बालू की सप्लाई करने वाले प्रदीप दे कहते हैं कि एक झटके में सब कुछ खत्म हो गया। साल भर बाद भी सिंगुर उस छोटी कार के जाने के बड़े सदम से नहीं उबर सका है।
इलाके के लोगों को हल्की उम्मीद थी कि टाटा ने सिंगुर की जमीन नहीं लौटाई तो शायद देर-सबेर यहां कोई परियोजना लगे। लेकिन बीते महीने कोलकाता आए रतन टाटा ने साफ कर दिया कि सिंगुर के लिए फिलहाल उनके पास कोई योजना नहीं है। उन्होंने कहा था कि सरकार अगर यहां निवेश की गई रकम का मुआवजा दे दे तो वे जमीन लौटाने को तैयार हैं। दूसरी ओर, रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, जिनकी अगुवाई में इलाके में अधिग्रहण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ था, ने सिंगुर की जमीन मिलने पर वहां रेल कारखाना लगाने का भरोसा दिया है। लेकिन फिलहाल कुछ भी तय नहीं है।
टाटा के कामकाज समेटने के बाद परियोजना से जुड़े कुछ स्थानीय युवकों ने नौकरी के लिए दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में हाथ-पांव मारे थे। लेकिन मंदी के इस दौर में नौकरी भला कहां मिलती। कुछ दिनों बाद वे सब सिंगुर लौट आए। अब सिंगुर की उस खाली पड़ी जमीन और संयंत्र के ढांचे को निहारते ही उनके दिन बीतते हैं। मन में इस उम्मीद के साथ कि कभी न तो कभी तो फिर भारी-भरकम मशीनों के शोर से परियोजनास्थल पर बिखरी खामोशी टूटेगी। सुनील कहते हैं कि हमारी तो जिंदगी ही खामोश हो गई है। जनसत्ता
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kafi acha likh hai aapne
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