Monday, September 7, 2009

पार्टी में अकेले पड़ गए हैं बुद्धदेव!


प्रभाकर मणि तिवारी
कभी माकपा के शीर्ष नेतृत्व से अपने हर फैसले पर मुहर लगवा लेने वाले पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य अब अपनी ही पार्टी में अकेले पड़ गए हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब भट्टाचार्य की अगुवाई में राज्य में औद्योगिकीकरण की जबरदस्त आंधी चली थी। लेकिन सिंगुर व नंदीग्राम की घटनाओं और उनके चलते पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव और विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में पार्टी की दुर्गति के बाद मुख्यमंत्री ने खुद को काफी समेट लिया है। बीते महीने तबियत खराब होने के बहान वे कोई पंद्रह दिनों तक राइटर्स बिल्डिंग स्थित अपने दफ्तर नहीं गए। अब वे दफ्तर तो जाने लगे हैं। लेकिन पहले के मुकाबले उनके काम के समय में दो से तीन घंटों तक की कटौती हो गई है। बीमारी की आड़ में ही वे दो-दो बार माकपा की पोलितब्यूरो बैठक में शिरकत करने दिल्ली नहीं गए।
मुख्यमंत्री की लगातार लंबी खिंचती इस बीमारी से साफ हो गया है कि पार्टी में अंदरखाने सब कुछ ठीक नहीं है। लोकसभा चुनावों के बाद भी माकपा के नेता एक के बाद एक विवादों में फंसते जा रहे हैं। ताजा मामला वैदिक विलेज का है। इसमें माकपा के दो दिग्गज मंत्रियों ने ही जिस तरह एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा किया, उससे बुद्धदेव परेशान हैं। बीते कुछ महीनों से पार्टी बुद्धदेव पर लगातार हावी हो रही है। सरकार के रोजमर्रा के कामकाज में पार्टी के लगातार बढ़ते हस्तक्षेप से खिन्न बुद्धदेव ने बीच में अपने इस्तीफे की भी पेशकश की थी। उनका कहना था कि पार्टी को अब मुख्यमंत्री के तौर पर किसी नए चेहरे की जरूरत है जो पार्टी और सरकार में बेहतर तालमेल बिठाते हुए 2011 में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पूरी तैयारी कर सके।
यहां माकपा के सूत्रों का कहना है कि बुद्धदेव की नाराजगी की कई वजहें हैं। वे लंबे अरसे से सरकार के कुछ दागी मंत्रियों को हटा कर उनकी जगह नए चेहरों को मंत्रिमंडल में शामिल करने का प्रयास करते रहे हैं। लेकिन पार्टी के दबाव में वे ऐसा नहीं कर सके। माकपा ने राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के खिलाफ जिस तरह मोर्चा खोला था वह भी बुद्धदेव के गले नहीं उतरा। यह इसी से साफ है कि जब माकपा और वाममोर्चा के तमाम नेता राज्यपाल के खिलाफ जहर उगल रहे थे, मुख्यमंत्री ने इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की।
जानकार सूत्रों का कहना है कि 2001 के चुनाव राज्य में वाममोर्चा के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं। इसकी तैयारी के लिए सरकार के नेतृत्व परिवर्तन की सलाह के साथ बुद्धदेव ने हाल ही में माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु के साथ पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के साल्टलेक स्थित आवास पर उनसे मुलाकात कर इस मामले पर विचार-विमर्श किया था। लेकिन बसु ने यह कहते हुए उनको इस्तीफा नहीं देने की सलाह दी थी कि इससे राज्य के लोगों में एक गलत संदेश जाएगा। पहले एक दिन में उद्योगपतियों और व्यापारिक संगठनों के साथ तीन-तीन बैठकों में शिरकत करने वाले मुख्यमंत्री अब ऐसे सम्मेलनों में नहीं नजर आते। बीते दिनों वे अमेरिकन चैंबर औफ कामर्स की एक बैठक में भी शिरकत करने नहीं गए। यही नहीं, हाल में जब टाटा समूह के मुखिया रतन टाटा कोलकाता आए तो मुख्यमंत्री ने उसे भी मुलाकात नहीं की। टाटा ने मुख्यमंत्री और उद्योग मंत्री से मुलाकात के लिए समय मांगा था। लेकिन समय दिया सिर्फ उद्योग मंत्री निरुपम सेन ने।
मुख्यमंत्री के करीबी सूत्रों का कहना है कि राज्य में लोकसभा चुनावों में दुर्गति के लिए जिस तरह अकेले उनको और उनके औद्योगिकीकरण अभियान को जिम्मेवार ठहराया गया, उससे बुद्धदेव काफी आहत हैं। लेकिन अब वे सरकार से उस तरह एक झटके में नाता नहीं तोड़ सकते, जिस तरह उन्होंने ज्योति बसु के मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान तोड़ा था।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पार्टी और बुद्धदेव के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन उसके सामने भी फिलहाल मुख्यमंत्री पद लायक ऐसा कोई नेता नहीं है जो बुद्धदेव के आसपास भी हो। ऐसे में बुद्धदेव को बनाए रखना उसकी मजबूरी है। माकपा के सूत्र बताते हैं कि पार्टी में बुद्धदेव के साथ एक उपमुख्यमंत्री बनाने पर गहन विचार-विमर्श चल रहा है। इस पद के लिए उद्योग मंत्री निरुपम सेन का नाम भी चर्चा में है। सूत्रों की मानें तो उपमुख्यमंत्री का पद महज दिखावे के लिए नहीं होगा, उसके पास काफी अधिकार होंगे। पर्यवेक्षकों का कहना है कि सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़, मंगलकोट और जमीन अधिग्रहण से जुड़े तमाम मुद्दों व चुनावों में हुई दुर्गति के बाद फिलहाल पुनर्गठन के दौर से गुजर रही है। यह अलग बात है कि इस वजह से पार्टी में महीनों से भीतर ही भीतर कायम असहमतियां सतह पर आने लगी हैं। जनसत्ता

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