कर्नाटक की राजधानी बंगलूर से कोई 140 किमी दूर स्थित इस ऐतिहासिक व पौराणिक शहर में हर कदम पर राजशाही के निशान बिखरे हैं। शहर के हर कोने में या तो वाडियार राजाओं का बनवाया कोई महल है या फिर कोई मंदिर। पौराणिक मान्यता के मुताबिक, शहर से ऊपर चामुंडी पहाड़ी पर रहने वाली चामुंडेश्वरी ने इसी जगह पर महिषासुर को मारा था। पहले इस शहर का नाम महीसूर था जो बाद में धीरे-धीरे मैसूर बन गया। महाभारत के अलावा सम्राट अशोक से भी इस शहर का गहरा रिश्ता रहा है। वाडियार राजाओं के शासनकाल में फले-फूले इस मंथर गति वाले शहर का मिजाज अब भी राजसी है। मंथर इसलिए कि शहर में आम जनजीवन काफी सुस्त है। वाहनों की रफ्तार पर भी अंकुश है। शहर की चौड़ी सड़कों पर 40 किमी प्रति घंटे से ज्यादा गति से कोई वाहन चलाने पर पाबंदी है।
शहर की गति भले सुस्त हो, लेकिन अगर लोगों व प्रशासन का उत्साह देखना हो तो यहां दशहरे में आना चाहिए। यहां का दशहरा दुनिया भर में मशहूर है। उस दौरान देश-विदेश से बारी तादाद में सैलानी यहां जुटते हैं। आम तौर पर इस शांत व सुस्त शहर को उन दिनों लगभग दो महीने पहले से ही पंख लग जाते हैं। इसके दौरान शहर मानों फिर से राजशाही के दौर में लौट जाता है। इसके लिए पूरे शहर में साफ-सफाई का काम महीनों पहले शुरू हो जाता है। मैसूर राजमहल व शहर के दूसरे महलों को भी दुल्हन की तरह सजाया जाता है। बंगलूर से शहर में घुसते ही एक विशाल स्टेडियम नजर आता है। स्थानीय निवासी मुदप्पा बताते हैं कि इस स्टेडियम में दशहरा उत्सव के दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। साल के बाकी दिनों में इस स्टोडियम का इस्तेमाल सामूहिक विवाह जैसे सामुदायिक कार्यों के लिए होता है। वे कहते हैं कि मैसूर का सौंदर्य देखना हो तो दशहरे के दौरान यहां आना चाहिए।
शहर की अर्थव्यवस्था के दो मजबूत स्तंभ हैं। पहला सिल्क उद्योग व दूसरा पर्यटन । साथ ही चंदन की लकड़ियों से बनी वस्तुएं भी बहुतायत में मिलती हैं। दशहरा उत्सव के दौरान शहर के तमाम होटल महीनों पहले से ही बुक हो जाते हैं। दशहरा उत्सव के लिए नागरहोल नेशनल पार्क से हाथियों दस्ता भी शहर में आता है। इस उत्सव की शुरूआत चामुंडेश्वरी मंदिर में पूजा के साथ होती है। इस दौरान मैसूर राजमहल पूरे दस दिन बिजली की रोशनी में चमकता रहता है।
वर्ष 1799 में टीपू सुल्तान की मौत के बाद यह शहर तत्कालीन मैसूर राज की राजधानी बना था। उसके बाद यह लगातार फलता-फूलता रहा। विशाल इलाके में फैले इस शहर की चौड़ी सड़कें वाडियार राजाओं की यादें ताजा करती हैं। शहर की हर प्रमुख सड़क इन राजाओं के नाम पर ही है। राजाओं के बनवाए महलों में से कुछ अब होटल में बदल गए हैं तो एक में आर्ट गैलरी बन गई है। मैसूर राजमहल से सटे एक भवन में राजा के वंशज एक संग्रहालय भी चलाते हैं।
शहर के आसपास भी देखने लायक जगहों की कोई कमी नहीं है। कावेरी बांध के किनारे बसा विश्वप्रसिद्ध वृंदावन गार्डेन, चामुंडी हिल्स, ललित महल, चिड़ियाखाना, जगमोहन महल, टीपू सुल्तान का महल व मकबरा--यह सूची काफी लंबी है। मशहूर पर्वतीय पर्यटन स्थल ऊटी भी यहां से महज 150 किमी ही है। यही वजह है कि यहां पूरे साल देशी-विदेशी पर्यटकों की भरमार रहती है।
बंगलूर से निकल कर मैसूर जाने के दौरान हाइवे के किनारे बने एक दक्षिण भारतीय होटल में दोपहर के खाने के दौरान ही दक्षिण भारत की पाक कला की झलक मिलती है। तमाम वेटर पारंपरिक दक्षिण भारतीय ड्रेस में। दक्षिण भारत में लंबा अरसा गुजारने के बाद इडली की विविध आकार-प्रकार इसी होटल में देखने को मिले। मैसूर पहुंच कर होटल में कुछ देर आराम करने के बाद हमारा भी पहला ठिकाना वही था जो यहां आने वाले तमाम सैलानियों का होता है। यानी वृंदावन गार्डेन। होटल के मैनेजर ने सलाह दी कि जल्दी निकल जाइए वरना गेट बंद हो जाएगा। वहां पहुंच कर कार की पार्किंग के लिए माथापच्ची और भीतर घुसने के लिए लंबी कतार। खैर, भीतर जाकर तरह-तरह के रंगीन झरनों के संगीत की धुन पर नाचते देखा। लेकिन सबसे दिलचस्प है झील के पास गार्डेन के दूसरी ओर का नजारा। न जाने कितनी ही हिंदी फिल्मों में हीरो-हीरोइन को ठीक उसी जगह गाते देख चुका था। पुरानी यादें अतीत की धूल झाड़ कर एक पल में सजीव हो उठी।
अगले दिन पहाड़ी के ऊपर चामुंडेश्वरी मंदिर में जाकर दर्शन और पूजा से दिन की शुरूआत होती है। मंदिर के सामने ही महीषासुर की विशालकाय मूर्ति है। मन में किसी राक्षस के बारे में जैसी कल्पना हो सकती है, उससे भी विशाल और भयावह। मंदिर के करीब से पूरे मैसूर शहर का खूबसूरत नजारा नजर आता है। नीचे उतरते हुए मैसूर रेस कोर्स का फैलाव नजर आता है। हमारा अगला पड़ाव है मैसूर का राजमहल। कैमरा और बैग वगैरह मुख्यद्वार के पास ही टोकन के एवज में जमा करना पड़ता है। अब यह पुरात्तव विभाग के अधीन है। वहां सुरक्षा के लिहाज से पुलिस के जवान तैनात हैं। महल की खूबसूरती और वास्तुकला एपने आप में बेजोड़ है। यह तय करना मुश्किल है कि राजदरबार ज्यादा भव्य है या रनिवास। महल परिसर में ही चंदन की लकड़ी और अगरबत्तियां बिकती हैं। वापसी में बंगलूर से कोलकाता की उड़ान शाम को थी। इसलिए तय हुआ कि रास्ते में श्रीरंगपट्टनम होते हुए निकलेंगे। श्रीरंगपट्टनम यानी टीपू सुल्तान की बसाई नगरी और राजधानी। वहां अब टीपू सुल्तान का मकबरा है। काफी भीड़ जुटती है वहां भी। देखने के लिए टिकट लेना पड़ता है। वहां जगह-जगह पुरानी पेंटिग्स हैं जिनमें टीपू सुल्तान को अंग्रेजों से लोहा लेते हुए दिखाया गया है। यहां आकर स्कूली किताबों में पढ़े वे तमाम अध्याय बरबस ही याद आने लगते हैं जो जीवन की आपाधापी में मन के किसी कोने में गहरे दब गए थे।
यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है। कोलकाता से पहुंचने के बाद बंगलूर एअरपोर्ट से निकलने के बाद पूरे शहर में जहां भारी ट्रैफिक जाम से पाला पड़ा था। तब बंगलूर भी कहीं से कोलकाता जैसा ही लगा था। लेकिन शहर की सीमा से निकल कर मैसूर की ओर बढ़ते ही राज्य सरकार की ओर से बनवाया गया बंगलूर-मैसूर हाइवे देख कर यह धारणा कपूर की तरह उड़ जाती है। चिकनी सड़क पर न कहीं कोई गड्ढा, न कोई गंदगी और न ही ट्रैफिक जाम। एक जगह का जिक्र किए बिना यह कहानी अधूरी ही रह जाएगी। बंगलूर-मैसूर हाइवे पर ही स्थित है रामनगर। ऊंची-ऊंची चट्टानों से घिरा रामनगर वही जगह है जहां जी.पी.सिप्पी ने अपनी मशहूर फिल्म शोले का सेट लगा कर उसे रामगढ़ में तब्दील कर दिया था। उन पहाड़ियों को देखते ही शोले का दृश्य आंखों के सामने सजीव हो उठता है। लगता है मानो अभी किसी कोने से आवाज आएगी-तेरा क्या होगा कालिया?
Tuesday, September 1, 2009
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