Wednesday, February 17, 2010

उनको सालता है जीत का गम!


गम और खुशी, यह दो शब्द क्रमशः हार और जीत के साथ जुड़े हैं। लेकिन क्या किसी को अपनी जीत का गम भी हो सकता है? जी हां, ऐसा भी होता है जब किसी को अपनी जीत का गम कोई 38 साल बाद भी साल रहा हो। ऐसे ही एक सज्जन का नाम है शिवपद भट्टाचार्य । पश्चिम बंगाल के तत्कालीन 24-परगना जिले में बरानगर के रहने वाले 74 वर्षीय भट्टाचार्य को वर्ष 1972 के विधानसभा चुनावों में अपनी जीत आज भी सालती है। वजह---उन्होंने उस चुनाव में भाकपा उम्मीदवार के तौर पर बरानगर विधानसभा से सीट पर माकपा नेता ज्योति बसु को हराया था। बसु इससे पहले वर्ष 1952 से उस सीट से लगातार छह बार चुनाव जीत चुके थे. लेकिन 1972 में वे वहां भट्टाचार्य से हार गए थे। दिलचस्प तथ्य यह है कि शिवपद ने वर्ष 1957 और 1962 के विधानसभा चुनावों में उसी बरानगर सीट पर बसु के समर्थन में चुनाव प्रचार किया था। लेकिन अब बसु के निधन के बाद भट्टाचार्य अपनी उस जीत से खुश नहीं हैं। उनको अपनी जीत का गम लगातार साल रहा है।
शिवपद कहते हैं कि ज्योति बसु हमारे नेता थे.अब लगता है कि अगर मैं उनके खिलाफ चुनाव मैदान में नहीं उतरा होता तो बेहतर होता। वे बताते हैं कि बसु बालीगंज में रहते थे और बरानर में चुनाव के दौरान अपनी कार से यहां आते थे। मुझे बरानगर की जिम्मेवारी मिली थी। बसु हमेशा यहां से भारी अंतर के साथ जीतते थे। अतीत के पन्ने पलटते हुए भट्टाचार्य बताते हैं कि 1957 में बरानगर में बसु का मुकाबला कांग्रेस के कानाईलाल ढोले से था। बसु ने मुझसे पूछा कि क्या होगा? मैंने कहा कि आप कम से कम 10 हजार वोटों के अंतर से जीतेंगे और वे जीत गए।
1972 में हार का मुंह देखने के बाद बसु ने अपना चुनाव क्षेत्र बदल लिया और सातगछिया चले गए। 1977 से 1996 तक वे वहां से लगातार जीतते रहे। शिवपद बताते हैं कि 1972 के विधानसभा चुनावों के बाद बसु के साथ उनकी कभी बातचीत नहीं हुई। वे कहते हैं कि ‘मैंने उनके साथ कई कार्यक्रमों में शिरकत की। वे मेरी ओर देख कर मुस्करा देते थे। लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं होती थी।
शिवपद फिलहाल भाकपा की राज्य समिति के सदस्य हैं। वे कहते हैं कि बसु की नीतियां मौजूदा मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की नीतियों से बेहतर थीं। भट्टाचार्य मानते हैं कि बंगाल में वामपंथी आंदोलन अब गलत राह पर चल रहा है। वे कहते हैं कि राज्य सरकार अब जमीन के अधिग्रहण, माओवादियों पर पाबंदी और केंद्र की कांग्रेस सरकार का सहारा लेकर पूंजीवादी नीतियों को बढ़ावा दे रही है।
शिवपद कहते हैं कि ज्योति बसु कामकाजी तबके के असली नेता थे. वे पहले ऐसे नेता थे जिसने संसदीय लोकतंत्र और वामपंथ के बीच बेहतर तालमेल बनाया था। बसु के राजनीति से संन्यास लेने के बाद ही वामपंथियों ने आम लोगों को समर्थन खो दिया।

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