प्रभाकर मणि तिवारी
आजीवन सिद्धांतों की राजनीति करने वाले माकपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु मौत के बाद अपने राज्य यानी बंगाल में राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा बन गए हैं। सत्तारुढ़ वाममोर्चा से लेकर विपक्षी तृणमूल कांग्रेस तक उनको अपने सियासी हित में लगातार भुनाने में जुटी है। माकपा बसु की मौत से उपजी सहानुभूति को कम से कम अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों तक बनाए रखना चाहती है। उसकी मंशा इसी के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की है। व्यक्ति-पूजा पर भरोसा नहीं करने वाले वामपंथी राज्य में फिलहाल बसु के महिमामंडन में जुटे हैं। लेकिन दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने माकपा की इस रणनीति की काट के लिए बसु के मुख्यमंत्रित्व के कथित अंधेरे पक्ष को उजाले में लाने का प्रयास कर रही है।
ज्योति बसु मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने और सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बावजूद आखिरी सांस तक माकपा और उसकी अगुवाई वाले वाममोर्चा के मसीहा बने रहे। बीते लोकसभा चुनावों में उन्होंने अपने भाषण के वीडियो टेप के जरिए दूर-दराज के मतदाताओं से वाममोर्चा को समर्थन देने की अपील की थी। लेकिन उनकी यह अपील कामयाब नहीं रही। बाद में होने वाले विधानसभा उपचुनावों में तो बसु ने तृणमूल कांग्रेस की सहयोगी कांग्रेस और उसके समर्थकों से भी वाममोर्चा उम्मीदवारों से समर्थन की अपील कर दी थी। उनकी इस अपील से राजनीतिक हलकों में हैरत हुई थी। अब माकपा की अगुवाई वाली सरकार अपने लंबे कार्यकाल की दो सबसे अहम चुनौतियों के सामने खड़ी है। इसी साल कोलकाता नगर निगम के चुनाव होने हैं। निगम पर फिलहाल वाममोर्चा का कब्जा है। अगले साल विधानसभा चुनाव होंगे। लेकिन राज्य में दो साल पहले शुरू हुई बदलाव की लहर से खुद वामपंथी भी आशंकित हैं। इसलिए उसने बसु की मौत से उफजी सहानुभूति को चुनावी हित में भुनाने की रणनीति बनाई है।
बसु के निधन और उनकी अंतिम यात्रा को मीडिया में व्यापक कवरेज मिला था। उसके बाद एक हफ्ते के भीतर ही बसु की श्रद्धांजलि सभा का आयोजन कर दिया गया। इसके अलावा महानगर समेत राज्य के तमाम इलाकों में बसु की तस्वीरों वाले विशालकाय बैनर और पोस्टर लगाए गए हैं। इन पर मोटी रकम खर्च की गई है। राज्य के विभिन्न स्थानों पर बसु की याद में होने वाली श्रद्धांजलि सभाओं का दौर अब तक जारी है। जाहिर है पार्टी बसु की यादों को जिलाए रख कर सियासी फायदा उठाना चाहती है।
दूसरी ओर, वामपंथियों की इस रणनीति को समझने के बाद तृणमूल कांग्रेस ने भी इसकी काट खोज ली है। वह वाममोर्चा के कार्यकाल में हुए कथित अत्याचारों के साथ ही अब बसु के 23 साल लंबे मुख्यमंत्रित्व के कथित काले पक्षों को लोगों के सामने लाने का प्रयास कर रही है। यह वजह है कि बीते रविवार को जब माकपा ने बसु की याद में महानगर में एक विशाल रैली आयोजित की तो ठीक उसी समय तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी मरीचझापी के शहीदों के परिजनों को सम्मानित कर रही थीं। उत्तर 24-परगना जिले के बारासत के पास मरीचझापी में वर्ष 1979 में बांग्लादेश से भारी तादाद में आए शऱणार्थियों पर पुलिस ने फायरिंग की थी और उनको राज्य से खदेड़ दिया था। तब बसु ही मुख्यमंत्री थे।
ममता बनर्जी ने मरीचझापी की घटना की नए सिरे से जांच कराने और पुलिसिया अत्याचार के शिकार लोगों को न्याय दिलाने की मांग की है। मरीचझापी का मुद्दा उठा कर पार्टी एक तीर से दो निशाने साधने का प्रयास कर रही है। वह इसके जरिए बसु की मौत से सहानुभूति बटोरने में जुटी माकपा की रणनीति का जवाब देना चाहती हैं। ममता ने वाममोर्चा सरकार के कार्यकाल के दौरान हुए कथित अत्याचारों की सूची में अब मरीचझापी का नाम भी जोड़ दिया है।
इससे पहले भी ममता वामपंथियों का एक मुद्दा छीन चुकी हैं। बीते साल तृणमूल की ओर से आयोजित शहीद रैली के दौरान ममता ने तेभागा आंदोलन और खाद्य आंदोलन के दौरान मारे गए लोगों के परिजनों को मंच पर बिठा कर उनको सम्मानित किया था। वर्ष 1946 में भाकपा के संगठन किसान सभा ने किसानों के हक में तेभागा आंदोलन शुरू किया था। उस समय किसानों को आधी फसल खेत के मालिक को देनी पड़ती थी। तेभागा (तीसरा हिस्सा) आंदोलन की मांग थी कि यह हिस्सा घटा कर एक तिहाई कर दिया जाए। राज्य में खाद्यान्नों की भारी किल्लत होने पर भाकपा ने 1959 में खाद्य आंदोलन शुरू किया था।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ज्योति बसु अपने संन्यास के बावजूद हर चुनाव में अहम भूमिका निभाते रहते थे। वे वामपंथियों की ढाल बने हुए थे। अब वामपंथी बसु की मौत से उपजी सहानुभूति के जरिए ही चुनावी वैतरणी पार करने के प्रयास में जुटे हैं। उनकी मंशा अगले चुनावों तक लोगों के दिलों में बसु को जिंदा रखने की है। यही वजह है कि पोस्टरों व बैनरों के जरिए बसु के सिद्धांतों का जम कर प्रचार किया जा रहा है। दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस भी इसकी काट की दिशा में काम कर रही है। इस अभियान से किसे कितना फायदा होगा, यह तो चुनावी नतीजे ही बताएंगे। लेकिन राजनीति का मुद्दा बने बसु पर खींचतान फिलहाल दिलचस्प होती जा रही है। जनसत्ता
Tuesday, February 2, 2010
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