Tuesday, February 2, 2010

बिग बी और मैं !


यह शीर्षक भ्रामक है. इससे यह आभास हो सकता है कि मैं बिग बी यानी अमिताभ बच्चन के साथ किसी फिल्म में काम कर रहा हूं या फिर उनकी किसी फिल्म की पटकथा लिख रहा हूं. ऐसा कुछ भी नहीं है. पत्रकार हूं. लेकिन फिल्म की पटकथा लिखने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. वैसे, यह बात अंगूर खट्टे होने जैसी भी लग सकती है. फिर भी सच तो सच है.
आज से कोई 31 साल पहले 1979 में पहली बार कलकत्ता आया था. तब यह कलकत्ता ही था कोलकाता नहीं. घूमने आया था. एक परिचित के घर रहा. उसी समय जीवन का पहला कैमरा खरीदा-आगफा क्लिक थ्री. वही उस समय सबसे बेहतर था. फिल्म का एक रोल लगाने पर उससे बारह ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें खींची जा सकती थी. तब मैंने कलकत्ता के ज्यादातर दर्शनीय स्थल देखे थे. विक्टोरिया मेमोरियल और बिड़ला प्लेनेटोरियम के सामने उस कैमरे से खिंचवाई गई तस्वीर अब भी एक फोटो प्रेम में सुरक्षित रखी है. लेकिन उस बार एक चीज नहीं देख पाया. नेताजी इंडोर स्टेडियम. हालांकि उसमें देखने लायक कोई बात थी भी नहीं. लेकिन उसे नहीं देखने का मुझे काफी गहरा अफसोस हुआ दो साल बाद. क्यों? इस सवाल का जवाब आगे चल कर.
बचपन में मुझे फिल्में देखने का भारी शौक था. सातवीं-आठवीं कक्षा में कुछ दोस्त भी ऐसे ही मिल गए थे. हर नई फिल्म पहले दिन पहले शो में देखना तो आदत-सी बन गई थी. इसके लिए स्कूल से गायब रहने लगा. कई बार जेबखर्च के पैसे जुटा कर फिल्में देखता था कई बार स्कूल की फीस से. चरस, महबूबा और ऐसी ही न जाने कितनी फिल्में पहले शो में देखी थी उस दौर में. टिकट की खिड़की पर चाहे जितनी भी भीड़ हो हमें टिकटें जरूर मिल जाती थीं. किनारे से धक्का-मुक्की कर किसी तरह टिकट खिड़की के भीतर हाथ पहुंचाने की कला में मैं धीरे-धीरे उस्ताद हो गया था. अपनी इसी कला की वजह से हर बार टिकट कटाने का जिम्मा मुझे ही मिलता था.
फिल्में देखने लगा तो जाहिर है हीरो-हीरोइनों के प्रति दिलचस्पी भी बढ़ने लगी. आखिर में जेबखर्च के तौर पर मिलने वाले पैसों में से बचा कर मैं हर हफ्ते धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन से लेकर जितेंद्र और विनोद खन्ना तक को पत्र भेजने लगा. हजारों नहीं तो सैकड़ों पोस्टकार्ड तो जरूर भेजे होंगे. लेकिन अफसोस कि किसी ने एक पत्र का भी जवाब तक नहीं दिया. लेकिन इससे मेरा हौसला कम नहीं हुआ. पत्र भेजना जारी रहा. लेकिन इसबीच, एक दिन फिल्म देखने के लिए स्कूल से पेट दर्द का बहाना बना कर निकलते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया. घर आने पर पिता जी ने छाते के बेंत से ऐसी धुलाई की कि मां को बेंत के दाग और दर्द दूर करने के लिए कई दिनों तक देशी शराब मेरे बदन पर मलनी पड़ी थी. उसके बाद पढ़ाई पर ध्यान दिया. लेकिन मेरी संगत के चलते ही पिता जी ने तय कर लिया था कि हाईस्कूल के बाद इंटर के लिए मुझे देवरिया भेजना है. वहां शिवाजी इंटर कालेज में मेरे मामा पढ़ाते थे. मैं परीक्षा देकर वहां चला गया. वहीं 12वीं में पढ़ते हुए पहली बार घूमने के लिए कलकत्ता आया था.

कलकत्ता से लौटने के कोई दो साल बाद जब बिग बी की फिल्म याराना देखी तब मुझे नेताजी इंडोर स्टेडियम नहीं देखने का भारी अफसोस हुआ. फिल्म का एक गीत उसी स्टेडियम में फिल्माया गया था. खैर, जीवन की जद्दोजहद कई यादों और दर्द को धूमिल कर देती है. यही मेरे साथ भी हुआ. बीते दस सालों से कलकत्ता में रहते हुए कई बार नेताजी इंडोर स्टेडियम में जाना हुआ. कभी पत्रकार के तौर पर तो कभी बेटी के स्कूल के सालाना समारोह में. लेकिन बीते महीने बेटी के स्कूल के समारोह में जाने पर मेरा 29 साल पुराना अफसोस खत्म हो गया. अशोक हाल ग्रुप आफ स्कूल्स की ओर से हर चार साल पर बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक समारोह का आयोजन किया जाता है-स्पेक्ट्रम. अबकी स्पेट्रक्म में बिग बी ही मुख्य अतिथि थे. जगह थी नेताजी इंडोर स्टेडियम. वहां बैठे हुए लग रहा था मानो समय का पहिया एक पल में तीन दशक पीछे घूम गया.
बिग बी उस समारोह में पूरे ढाई घंटे बैठे रहे. उन्होंने भी अपने भाषण में इस स्टेडियम में हुई अपनी शूटिंग के दौर को याद किया. और मैंने भी एक अफसोस को मिटा लिया. जगह भी वही थी, आदमी (अमिताभ) भी वही, बस समय का पहिया तीन दशक आगे बढ़ गया था. लेकिन कहते हैं न कि देर आयद दुरुस्त आयद. जीवन में कई अफसोस रहेंगे. लेकिन अब उनमें से कम कम एक तो कम हो गया है. बस, इसी का संतोष है.

1 comment:

  1. बहुत दिलचस्प है यह वाकया ।

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