माकपा के बुजुर्ग नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु अपनी आखिरी सांस तक वाममोर्चा और अपनी पार्टी माकपा के मसीहा और संकटमोचक बने रहे। कोई नौ साल पहले सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बावजूद उनकी राजनीतिक सक्रियता में कहीं कोई कमी नहीं आई थी। वे दो साल पहले तक नियमित तौर पर अलीमुद्दीन सट्रीट स्थित पार्टी के मुख्यालय आते थे और हर मसले पर सरकार और पार्टी को सलाह देते थे। वाममोर्चा सरकार और माकपा जब भी किसी मुसीबत में फंसती थी तो बसु ही उसे उबारते थे। मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने के बाद बीते नौ वर्षों में ऐसे अनगिनत मौके आए जब उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर पार्टी को संकट से बचाया। वाममोर्चा के बाकी घटकों में भी बसु का वही स्थान था जो उनकी अपनी पार्टी में। घटक दलों के विवाद के समय भी बसु ही पंचायत करते थे। अब तक ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती जब घटक दल के किसी नेता ने बसु के फैसले पर एतराज जताया हो। बसु की बात सबके लिए पत्थर की लकीर साबित होती थी।
बीते लगभग पांच वर्षों के दौरान सिंगुर, नंदीग्राम, जमीन अधिग्रहण, सोमनाथ चटर्जी के माकपा से निष्कासन और राजनीतिक हिंसा समेत न जाने कितनी ऐसी समस्याएं पैदा हुईं जब बसु ने पार्टी व सरकार को सही रास्ता दिखाया। बसु आखिरी दम तक मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर चलते रहे। यही नहीं, उन्होंने इन सिद्धांतों का पालन करते हुए इसके व्यवहारिक पक्ष का भी ध्यान रखा। सरकार और पार्टी की गलती के समय वे उनकी खिंचाई करने से भी नहीं चूके। बसु हमेशा कहते थे कि सरकार के कामकाज की सकारात्मक आलोचना जरूरी है। राज्य में औद्योगिकीकरण की बयार चलने पर सरकार ने जब बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण शुरू किया तो सबसे पहले बसु ने ही इसके खिलाफ आवाज उठाई थी। उन्होंने तब दलील दी थी कि खेती की जमीन पर उद्योग नहीं लगाए जाने चाहिए। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपनी नाराजगी जताई थी। बाद में विपक्ष ने इस मुद्दे को लपक लिया। हालांकि माकपा नेतृत्व ने तब बसु को विकास की दुहाई देकर समझा लिया था। लेकिन अगर सरकार ने उस समय उनकी नसीहत पर ध्यान दिया होता तो शायद सिंगुर और नंदीग्राम की फांस उसके गले में नहीं चुभती।
इसी तरह जब लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के निष्कासन के मुद्दे पर प्रदेश माकपा के नेता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से बगावत पर उतारू थे तब बसु ने उनको समझाया था। इस पूरे मामले में बसु की वजह से ही पार्टी की ज्यादा थुक्का-फजीहत नहीं हुई। अगर बसु ने तब नेताओं को नहीं समझाया होता तो शायद यहां महासचिव प्रकाश करात के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर नारे लगने लगते।
बसु ने अपने जीवन में पद के लिए कभी कोई समझौता नहीं किया। अगर वे चाहते तो वर्ष 1996 में प्रधानमंत्री बन सकते थे। लेकिन उन्होंने पार्टी के फैसले का सम्मान करते हुए वह कुर्सी ठुकरा दी। यह जरूर है कि उनको आखिरी दम तक इस बात का मलाल रहा। बाद में हालांकि पार्टी ने भी मान लिया कि वह फैसला गलत था। वे केंद्र की पूर्व यूपीए सरकार से वामदलों के समर्थन वापसी के भी खिलाफ थे। उन्होंने पार्टी में अपने स्तर पर इसका पूरा विरोध किया था। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व समर्थन वापस लेने पर आमादा था। उसके बावजूद बसु ने नेताओं से कहा कि समर्थन भले वापस ले लें, लेकिन सरकार नहीं गिरनी चाहिए। उनकी दलील थी कि देश एक मध्यावधि चुनाव झेलने की हालत में नहीं है।
सोमनाथ चटर्जी प्रकरण में हर ओर से हताश होने के बाद माकपा का केंद्रीय नेतृत्व भी बसु की शरण में आया और उनको इस्तीफे के लिए मनाने की जिम्मेवारी बसु को सौंपी। सोमनाथ को बसु का करीबी माना जाता रहा है। बसु ने ही सोमनाथ से इस मामले को ज्यादा तूल नहीं देने की सलाह दी।
सिंगुर और नंदीग्राम जैसे मुद्दों पर भी बसु ने हमेशा उसी बात का समर्थन किया जो उचित था। उन्होंने पार्टी के दूसरे नेताओं की तरह कभी कोई चुभने वाली टिप्पणी नहीं की। अपने लगातार गिरते स्वास्थ्य की वजह से बसु बीते दो चुनावों में पार्टी के लिए चुनाव प्रचार नहीं कर सके थे। उससे पहले 1977 के बाद वही स्टार प्रचारक हुआ करते थे। लेकिन पार्टी ने बीते चुनावों में भी उनका सहारा लिया। बसु के भाषण के वीडियो कैसेट तैयार कर दूर-दराज के गांवों में भेजे गए। ब्रिगेड रैली में भी बसु के भाषण का वीडियो कैसेट चलाया गया।
माकपा के विवादास्पद नेता और पूर्व खेल मंत्री सुभाष चक्रवर्ती बसु के खास लोगों में थे। वे जब तक जिए अपनी टिप्पणियों और कामकाज से सरकार और पार्टी के लिए मुसीबतें पैदा करते रहे। लेकिन बसु का संरक्षण होने की वजह से ही गंभीर से गंभीर गलती करने के बावजूद पार्टी नेतृत्व को कभी सुभाष के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का साहस नहीं हुआ। सुभाष कहते भी थे कि बसु उनको राजनीतिक गुरू हैं। वे उनके अलावा दूसरे किसी नेता की बात को कोई तवज्जों नहीं देते थे। सुभाष और उनकी पत्नी ही हर साल बसु के साल्टलेक स्थित आवास पर धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाते थे। बीते साल सुभाष की मौत से बसु काफी दुखी हुए थे। उन्होंने तब कहा था कि जाना मुझे चाहिए था. लेकिन चले गए सुभाष।
बसु अपने जीते-जी ही एक किंवदंती बन गए थे। उनके राजनीतिक कद की वजह से उनको अपनी पार्टी ही नहीं बल्कि विपक्ष का भी पूरा सम्मान हासिल था। माकपा और राज्य सरकार की नाक में दम करने वाली तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी भी बसु का उतना ही सम्मान करती थी जितना कोई माकपा नेता। वे कई बार बसु के बुलावे पर उनके घर गई थीं। सिंगुर व नंदीग्राम आंदोलन के चरम पर होने के समय भी बसु ने ममता को घर पर बुला कर उसे राज्य के हित में समझौता करने का अनुरोध किया था। अब माकपा में बसु के कद का ऐसा कोई दूसरा नेता नहीं हो जिसे घटक दलों का भी पूरा सम्मान हासिल हो।
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