Monday, January 18, 2010

खूबियों और खामियों भरा रहा कार्यकाल

माकपा के सबसे बुजुर्ग नेता ज्योति बसु कोई एक चौथाई सदी तक बंगाल के मुख्यमंत्री रहने के दौरान कई तरह के आंदोलनों और चुनौतियों से जूझते रहे। उनकी बैलेंस शीट में अगर कुछ कामयाबियां रहीं तो कुछ नाकामियां भी थीं। बसु अपने कार्यकाल के दौरान होने वाले तमाम आंदोलनों से अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ से निपटते रहे। ऐसे आंदोलनों में अस्सी के दशक में दार्जिलिंग की पहाड़ियों में हुए गोरखालैंड आंदोलन और नब्बे की दशक की शुरूआत में कूचबिहार जिले में हुए तीनबीघा आंदोलन का जिक्र किया जा सकता है।
वर्ष 1985 में सुभाष घीसिंग और उनके समर्थकों ने गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बैनर तले अलग राज्य की मांग में जोरदार आंदोलन शुरू किया था। लगभग तीन साल तक चले इस आंदोलन के दौरान सैकड़ों लोग मारे गए और करोड़ों की सरकारी संपत्ति नष्ट हो गई। आखिर 14-15 अगस्त, 1988 को केंद्र, राज्य और जीएनएलएफ के बीच तितरफा करार के जरिए पर्वतीय परिषद के गठन पर सहमित बनी। उसके बाद भी घीसिंग जब-जब बेकाबू होते रहे, बसु ने अपने कौशल से उनको शांत किया। कभी धमका कर , कभी फुसला कर तो कभी विकास कार्यों के लिए परिषद को ज्यादा धन दे कर। हांलाकि उस धन से पर्वतीय इलाके का विकास कम हुआ, घीसिंग और उनके करीबियों का ज्यादा। इसे बसु की नाकामी ही माना जाएगा कि पहाड़ी इलाके में शांति बहाल रखने के मकसद से उन्होंने कभी घीसिंग की कार्यशैली पर न तो कोई सवाल उठाया और न ही उस रकम का कोई हिसाब मांगा।
इसी तरह यह बसु की अगुवाई वाली सरकार का ही कौशल था कि 26 जून 1992 को खून का एक कतरा बहाए बिना तीनबीघा गलियारा बांग्लादेश को सौंप दिया गया। उससे पहले तक इस आंदोलन की आक्रामकता देख कर तो लगता था कि उस दिन सैकड़ों लाशें बिछ जाएंगी। आंदोलनकारियों का नारा ही था कि रक्त देबो, प्राण देबों, तीन बीघा देबो ना (खून देंगे, जान देंगे, लेकिन तीनबीघा नहीं देंगे)।
लेकिन बसु के कार्यकाल में राज्य में हजारों की तादाद में कल-कारखाने बंद हुए, लाखों मजदूर बेरोजगार हुए। पढ़े-लिखे बेरोगारों की फौज भी लगातार बढ़ती रही। सरकारी कर्मचारियों में कार्यसंस्कृति लगभग खत्म हो गई। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी खत्म करने का बसु सरकार का फैसला आज भी बंगाल के पिछड़ेपन की सबसे अहम वजह माना जाता है। कभी पढ़ाई में अव्वल रहने वाला बंगाल लगातार फिसड्डी होता गया। शिक्षा के अलावा इस दौरान स्वास्थ्य सेवाएं भी बदहाल होती गईं। बसु के कार्यकाल में ही उस बंगाल की ऐसी हालत हो गई जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि बंगाल जो आज सोचता है, वह बाकी देश कल सोचता है।
बसु की अगुवाई वाली सरकार अपने पूरे कार्यकाल के दौरान भूमि सुधारों का ही ढिंढोरा पीटती रही। हर साल अपनी विदेश यात्राओं को लेकर भी बसु विवादं में फंसते रहे। उनकी उन यात्राओं के दौरान राज्य में अरबों डालर के विदेशी निवेश के सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए गए। लेकिन उनमें से कितनों पर अमल हुआ और कितनी विदेशी पूंजी का बंगाल में निवेश हुआ, यह पता लगाने के लिए किसी शोध की जरूरत नहीं है। बसु के कार्यकाल में राज्य में ट्रेड यूनियन आंदोलन मजबूत से आक्रामक हो गया। हर जगह लाल झंडे लेकर काम बंद किए गए। हड़ताल व रैलियां रोजमर्रा की बात बन गई। अपने इकलौते पुत्र चंदन बसु की संपत्ति और उनके कारनामों को लेकर भी बसु की कम छीछालेदर नहीं हुई। लेकिन इन सबसे जूझते हुए वे बने रहे और बंगाल में मुख्यमंत्री पद का पर्याय बन गए।

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