Monday, January 18, 2010

वामपंथ के एक युग का अवसान

(इस बात का अंदेशा तो पहली जनवरी को उस समय ही पैदा हो गया था जब ज्योति बसु कोलकाता के एक निजी अस्पताल में दाखिल हुए थे. लेकिन बीते शुक्रवार को यह अंदेशा गहरा गया था. आखिर इस जुझारू नेता ने रविवार को अंतिम सांस ली.बसु के निधन पर जनसत्ता के लिए विभिन्न पहलुओं पर कई रिपोर्ट्स लिखी है. उनको साभार यहां दे रहा हूं ताकि ब्लाग पर भी बसु के जीवन के कई अनछुए पहलू सामने आ सकें.----प्रभाकर मणि तिवारी)
विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे ज्योति बसु
वर्ष 1920—महानगर कोलकाता (तब कलकत्ता) में धर्मतल्ला स्थित लोरेटो स्कूल की पहली कक्षा में एक दुबला-पतला, शर्मीला और गोरा लड़का पढ़ता है। कक्षा में उसके अलावा बाकी लड़कियां ही हैं। शायद यह भी उसके शर्मीलेपन की एक वजह है। दूसरे किसी स्कूल में दाखिला नहीं मिला तो पिता ने यह कर उसे यहां भर्ती कर दिया था कि एक साल बर्बाद करने से तो लड़कियों के स्कूल में पढ़ना ही बेहतर है। इसलिए उसे एक साल वहीं पढ़ना पड़ता है।
वर्ष 1930—आक्टर लोनी मोनुमेंट (शहीद मीनार) के पास नेताजी सुभाष चंद्र बोस का भाषण होने वाला है। वह शर्मीला लड़का, जो अब सोलह साल का किशोर हो चुका है और उसकी मसें भींगने लगी हैं, अपने चचेरे भाई के साथ खादी के कपड़े पहने नेताजी को सुनने वहां पहुंच जाता है। मौके पर पुलिस का भारी इंतजाम है। पुलिस लोगों पर लाठियां भांजती है। लोग भागने लगते हैं। लेकिन वे दोनों तय कर लेते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, भागना नहीं है। इस नहीं भागने के निश्चय की वजह से कई लाठियां उसकी पीठ पर भी बरसती हैं। घर पहुंचने पर मां उन चोटों पर हल्दी-चूना लगा देती है।
वर्ष 1946—वामपंथी दल ने कुछ साल पहले ही इंग्लैंड से बैरिस्टरी पास कर लौटे 32 साल के उस शर्मीले युवक को रेलवे क्षेत्र से चुनाव लड़ाने का फैसला किया है। उस युवक का मुकाबला बीए (बंगाल-असम) रेलवे इंप्लाइज यूनियन के अध्यक्ष हुमायूं कबीर से है। कबीर के पीछे कांग्रेस पार्टी की ताकत और पैसा है। वह युवक जानता है कि कबीर को जिताने के लिए जम कर धांधली होगी। फिर भी उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। और आखिर में वह कबीर को पछाड़ कर चुनाव जीत जाता है।
वर्ष 2000----पश्चिम बंगाल में बीते 23 वर्षों से वाममोर्चा का राज है। तब से मुख्यमंत्री भी एक ही हैं---ज्योति बसु। उनके नाम सबसे लंबे समय तक किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड है। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर रहे गेगांग अपांग इस रिकार्ड को तोड़ सकते थे। लेकिन वे दो साल पहले ही सत्ता से बाहर हो गए हैं। मुख्यमंत्री की अब उम्र हो चली है। स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। इसलिए अक्तूबर की 27 तारीख को , कभी लोरेटो स्कूल में लड़कियों के बीच पढ़ने वाला वह अकेला लड़का, नेताजी को सुनने के लिए पीठ पर लाठी खाने वाला वह किशोर और विधायक पद के चुनाव में हुमायूं कबीर जैसे दिग्गज को पछाड़ने वाला वह किशोर मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने का एलान कर देता है। अगले ही दिन वाममोर्चा की बैठक में वह इस्तीफा दे देता है जिसे देर रात फैक्स से राज्यपाल के पास भेज दिया जाता है। और लोरेटो के उस शर्मीले लड़के से बंगाल के अभिभावक तक का सफऱ तय करने वाले ज्योति बसु का मुख्यमंत्री के तौर पर पांच नवंबर, 2000 ही आखिरी दिन होता है। अगले दिन से बुद्धदेव भट्टाचार्य यह कुर्सी संभाल लेते हैं।
बसु का जन्म आठ जुलाई, 1914 को महानगर के हैरीसन रोड (अब महात्मा गांधी रोड) स्थित एक घऱ में हुआ था। उनके पिता, चाचा और ताऊ असम के घबड़ी में रहते थे। उनके दादाजी नौकरी के सिलसिले में वहां गए थे। चाचा और ताऊ वकील थे। बसु का पैतृक घर पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में ढाका जिले के बारूदी गांव में था। मामा का घर भी वहीं था। पिता निशिकांत बसु ने असम के डिब्रूगढ़ स्थित बेरी ह्वाइट मेडिकल स्कूल (जिसका नाम अब असम मेडिकल कालेज हो गया है) से चिकित्साशास्त्र में डिग्री हासिल की। ढाका में कुछ दिनों तक प्रैक्टिस करने के बाद वे अमरीका चले गए। वहां आगे की पढ़ाई भी की और नौकरी भी। निशिकांत लगभघ छह साल तक वहां रहे। इसी दौरान वे अपने एक भाई को भी इंजीनियरिंग पढ़ाने वहां ले गए। विदेश से लौटने के बाद निशिकांत कलकत्ता में प्रैक्टिस करने लगे। तब उनका परिवार हिंदुस्तान बिल्डिंग में रहता था जहां बाद में एलीट सिनेमाहाल बना। उनके भाइयों के परिवार भी साथ ही रहते थे।
हिंदुस्तान बिल्डिंग के मालिक नलिनी रंजन सरकार से ही निशिकांत ने हिंदुस्तान पार्क में एक बीघा जमीन खरीदी। तब वहां जंगल था। प्लाट के चारों ओर धान के खेत, नारियल के पेड़ और तालाब थे। वहीं मकान बना कर निशिकांत पूरे परिवार के साथ रहने लगे। तब तक इलाके में सड़कें बनने लगी थीं और ट्राम लाइन बिछाने का काम शुरू हो गया था। यह 1924-25 की बात है। तब ज्योति बसु महज दस साल के थे और सेंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ रहे थे।
वर्ष 1930-31 में बसु के सेंट जेवियर्स में पढ़ने के दौरान ही बंगाल में क्रांति का ज्वार आ चुका था। चटगांव में क्रांतिकारी हथियारों के भंडार पर कब्जा कर रहे थे तो जजों और मजिस्ट्रेटों की हत्याएं भी हो रही थी। उसी साल महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजी शासन के खिलाफ अनशन आंदोलन शुरू किया। किशोर मन पर इन घटनाओं का असर पड़ना स्वाभाविक था। बसु पर भी पड़ा। उनके किशोर मन में देश प्रेम की अनुभूति पैदा हुई और भावातिरेक में उन्होंने एलान कर दिया कि आज स्कूल नहीं जाऊंगा। पुत्र के मन का मर्म समझते हुए पिता ने भी बसु से कुछ नहीं कहा और वे उसे लेकर अपने क्लीनिक चले गए।
बसु के ताऊ नलिनीकांत बसु कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे। सेवानिवृत्ति के बाद उनको महानगर के मछुआबाजार बम कांड के अभियुक्त निरंजन सेन और उनके साथियों के खिलाफ सुनवाई के लिए गठित एक विशेष प्राधिकरण का जज बनाया गया। बसु के पिता ने उनको मना भी किया था। बसु और उनके घरवालों को यह बात अच्छी नहीं लगी। ज्योति बसु निरंजन सेन के बारे में ज्यादा कुछ तो नहीं जानते थे। लेकिन उनको यह जरूर मालूम था कि वे लोग जो कुछ कर रहे हैं, देश की आजादी के लिए ही कर रहे हैं। ताऊ जी के जज रहने के दौरान पुलिस ढेर सारी प्रतिबंधित किताबें-साहित्य जब्त कर उनके घर छोड़ जाती थी। उनमें शरतचंद्र की लिखी पथेर दाबी भी थी। बसु ने चोरी-छिपे इस किताब को पढ़ लिया। वर्ष 1930 में जब चटगांव में हथियारों के भंडार पर क्रातिंकारियों का कब्जा हुआ तब यह खबर फैली कि इसमें बंगालियों का कोई हाथ नहीं है। तब किसी को भी इस बात पर यकीन नहीं था कि बंगाली ऐसा कर सकते हैं। इसका खुलासा बाद में हुआ। उस समय सेंट जेवियर्स के पादरियों ने जब इस कांड के खिलाफ परचे बांटे तो बसु ने इसका विरोध किया। उनकी दलील थी कि यह काम तो देशहित में है।
सेंट जेवियर्स में स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद बसु ने आगे की पढ़ाई के लिए प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिला लिया। वहां आनर्स के साथ डिग्री लेने के बाद 21 साल की उम्र में बैरिस्टरी पढ़ने के लिए वे इंग्लैंड रवाना हो गए। बसु वहां चार साल तक रहे और सच कहा जाए तो बसु के मन में वामपंथी आंदोलन के बीज इंग्लैंड में रहने के दौरान ही पड़े। यूरोप में होने वाली तत्कालीन उथल-पुथल ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। तब हिटलर और मुसोलिनी के डंके बज रहे थे। इंग्लैंड के तमाम विश्वविद्यालय राजनीतिक विचार-विमर्श के केंद्र बन चुके थे। उस समय कृष्ण मेनन इंडिया लीग के सर्वेसर्वा थे। लीग ने विदेशों में रहने वाले भारतीयों के दिलों में देश की आजादी का अलख जगाने की दिशा में सराहनीय काम किया था। उसी समय बसु भी मेनन के संपर्क में आए और धीरे-धीरे उनमें काफी घनिष्ठता पैदा हो गई। उन्हीं दिनों भूपेश गुप्ता भी लंदन पहुंचे। उनलोगों का एक गुट बन गया।
इन छात्रों ने इंग्लैंड के कई प्रमुख वामपंथी नेताओं के साथ मेलजोल बढ़ाया। इनमें हैरी पोलिट, रजनी पाम दत्त और वेन ब्राडले के नाम उल्लेखनीय हैं। बसु की अगुवाई में वहां भारतीय छात्रों को एकजुट करने का अभियान भी शुरू हुआ। लंदन, कैंब्रिज और आक्फोर्ड विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों के गुट बन गए। गुट के सभी सदस्य वामपंथी विचारधारा के थे। इनमें रजनी पटेल, पी.एन. हक्सर, मोहन कुमार मंगलम, पार्वती मंगलम, इंद्रजीत गुप्त, रेणु चक्रवर्ती, निखिल चक्रवर्ती, अरुण बोस और एन.के.कृष्णन प्रमुख थे। भारतीय छात्रों को एकजुट कर लंदन मजलिस का गठन होने के बाद बसु ही इसके संस्थापक सचिव बने। मजलिस की बैठकों में फिरोज गांधी भी मौजूद रहते थे। वे इंडिया लीग के सक्रिय नेता थे। स्पेन के गृहयुद्ध के दौरान अलगाववादी फ्रांको के खिलाफ ब्रिटिश वामपंथी नेताओं के मौदान में उतरने की घटना ने बसु के युवा मन पर काफी असर डाला और उन्होंने धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति में उतरने का फैसला किया। उसी दौरान उनमें मार्क्सवादी साहित्य के प्रति भी रुझान बढ़ा।
कृष्ण मेनन ने ही बसु को नेहरु से मिलवाया था। बैरिस्टरी की परीक्षा देकर बसु 1940 में भारत लौट आए। यह तो लंदन में ही तय हो गया था कि स्वदेश लौट कर पूरी तरह पार्टी का काम करना है। तब तक विश्वयुद्ध भी शुरू हो गया था। बसु ने बैरिस्टर के तौर पर कलकत्ता हाईकोर्ट में अपना नाम तो दर्ज कराया था। लेकिन उन्होंने कभी प्रैक्टिस नहीं की। बसु के पिता उनके इस पैसले से नाराज थे। वे सोचते थे कि जब देशबंधु चित्तरंजन दास बैरिस्टरी और राजनीति एक साथ कर सकते हैं तो यह लड़का (बसु) ऐसा क्यों नहीं कर सकता। इसबीच, पिता ने उनकी शादी भी करा दी। वैसे, खुद बसु विवाह के पक्ष में नहीं थे। वे जानते थे कि जीवन की लड़ाई बहुत कठिन है। विवाह के कुछ दिनों बाद ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। बसु ने जब पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर काम शुरू किया तब पार्टी पर प्रतिबंध लगा था। सो, सब काम गोपनीय तरीके से ही करना पड़ता था। वर्ष 1942 की अगस्त क्रांति से कुछ दिनों पहले पार्टी से प्रतिबंध हटाया गया। वामपंथियों ने उस समय भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। उनकी दलील थी कि अभी आंदोलन का सही समय नहीं आया है। इस वजह से पार्टी को देश भर में जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा। वर्ष 1945 में पार्टी की पोलित ब्यूरो ने बसु को प्रदेश समिति का संयोजक मनोनीत कर दिया।
इससे पहले पार्टी ने बसु को मजदूरों को संगठित करने का काम सौंपा था। जब वे बंदरगाह और डाक मजदूरों के बीच पैठ नहीं बना सके तो उनको रेलवे मजदूरों के बीच भेजा गया। बसु ने पूर्वी बंगाल से असम तक घूम कर बी.ए.(बंगाल असम) रेलवे वर्कर यूनियन का गठन किया। वे इसके पहले महासचिव बने। यूनियन के अध्यक्ष बने बंकिम मुखर्जी। रेलवे यूनियन और दूसरी ट्रेड यूनियन गतिविधियों ने ही बसु को मांज कर चमकाया। उनकी अगुवाई में ही एक दिन की ऐतिहासिक रेल हड़ताल भी हुई। नेतृत्व के उनके गुण को ध्यान में रख कर ही पार्टी ने 1946 में हुए विधानसभा चुनाव में बसु को रेलवे क्षेत्र से उम्मीदवार बनाने का फैसला किया। उस चुनाव में कम अंतर से ही, लेकिन बसु जीत गए। उनकी पार्टी के दो और लोग तब चुनाव जीते थे। दार्जिलिंग से रतनलाल ब्राह्मण और दिनाजपुर से रूप नारायण राय। उस चुनाव के बाद बंगाल में सोहरावर्दी की अगुवाई में मुस्सलिम लीग की सरकार बनी थी। बाद में बसु को कानून सभा का भी सदस्य चुना गया। बसु और दूसरे नेताओं ने 16 अगस्त, 1946 को बंगाल में होने वाले दंगों के दौरान जान हथेली पर ले कर काम किया। बसु ने माना था कि उस दंगे में कलकत्ता में 20 हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। दंगों के बाद राहत और पुनर्वास के काम में भी पार्टी ने अहम भूमिका निभाई थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री सोहरावर्दी ने इस बात के लिए नेताओं की सराहना की थी।
वर्ष 1947 की शुरूआत में ऐतिहासिक तेभागा आंदोलन के दौरान भी बसु ने अहम भूमिका निभाई थी। किसानों की मांग थी कि फसल का दो-तिहाई हिस्सा उनको मिलना चाहिए। भू-राजस्व आयोग ने 1940 में किसानों की यह मांग मान ली थी। लेकिन उसकी सिफारिशों को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया था। 27 मार्च, 1948 को भाकपा की राज्य समिति पर प्रतिबंध लगाकार उसके तमाम बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें ज्योति बसु भी थे। यह उनकी पहली जेल यात्रा थी। उनको प्रेसीडेंसी जेल में रखा गया। तीन महीने बाद वे इस शर्त पर जेल से रिहा हुए कि पुलिस को सूचित किए बिना अपना पता नहीं बदलेंगे। उन्हीं दिनों अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में शिरकत करने बसु बंबई गए। पुलिस ने इसे पता बदलना माना और रास्ते में ही खड़गपुर स्टेशन पर उनको गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में जमानत तो मिल गई, लेकिन साथ ही हर सप्ताह थाने में हाजिरी देने की शर्त भी जोड़ दी गई। इसबीच, पांच दिसंबर, 1948 को बसु दूसरी बार विवाह बंधन में बंधे। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि वामपंथी के अभिभावक का दर्जा हासिल करने वाले बसु की मंशा पर उसी साल पार्टी नेतृत्व ने भी सवाल उठाया था। उनको बाकायदा पत्र लिख कर कैफियत मांगी गई कि वे भूमिगत रह कर काम क्यों नहीं करते। उनकी दूसरी शादी पर भी सवाल उठाए गए। बसु ने जवाब दिया कि वे पार्टी के निर्देश और नीतियों के अनुरूप ही काम कर रहे हैं। बाद में बसु को लंबे अरसे तक भूमिगत रहना पड़ा था।
18 जनवरी, 1952 को हुए विधानसभा चुनाव में बसु बरानगर सीट से चुनाव जीत गए। उनको 45 फीसद से भी ज्यादा वोट मिले थे। उन्होंने कांग्रेस के राय हरेंद्र नाथ चौधरी, जो डा. विधानचंद्र राय सरकार में मंत्री थे, को पराजित किया। चुनाव के बाद गठित विधानसभा में काफी हील-हुज्जत के बाद वामपंथी पार्टी को विरोधी दल और बसु को विपक्ष के नेता के तौर पर स्वीकृति मिली। इस दौरान एक ओर जहां बसु की राजनीतिक गतिविधियां बढ़ीं, वहीं उनका परिवार भी बढ़ा। सितंबर, 1952 में वे एक बच्चे के पिता बने। उसका नाम चंदन रखा गया। वही बसु की इकलौती संतान है। बसु के जेल में रहने या भूमिगत रहने पर उनकी पत्नी कमल बसु अपने पिता वीरेन बसु के घर चली जाती थी। कई बार बसु भी छिप कर वहीं रहे।
धीरे-धीरे दिन बीतते रहे। राज्य में साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में नक्सल आंदोलन ने भी जोर पकड़ा। बसु उसी समय राज्य में बनी साझा सरकार में उपमुख्यमंत्री बने। लेकिन यह सरकार ज्यादा दिनों तक चल नहीं सकी। उसके बाद राज्य में फिर कांग्रेस सत्ता में आई। इमरजंसी खत्म हने के बाद 1977 में हुए विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा भारी बहुमत के साथ जीत कर सत्ता में आया। ज्योति बसु उसके पहले मुख्यमंत्री बने और तमाम रिकार्ड बनाते हुए 23 साल से भी लंबे अरसे तक इस पद पर बने रहे। उन्होंने लंबे समय तक मुख्यमंत्री पद पर रहने का एक अनूठा विश्वरिकार्ड बनाया। लेकिन उनकी नजरों में इस रिकार्ड की कोई अहमियत नहीं थी। नवंबर, 2000 में यह कुर्सी छोड़ते हुए उन्होंने कहा था कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं इतने लंबे अरसे तक पद पर बना रहा। उससे ज्यादा महत्वपूर्ण वाममोर्चे का सत्ता में बने रहना है।
वर्ष 1991 और खासकर 1996 के विधानसभा चुनावों में वाममोर्चे को जिताने के बाद बसु की छवि मोर्चे और राज्य की राजनीति में एक मसीहा जैसी हो गई। तब तक वे इतने लंबे अरसे तक राज कर चुके थे कि नई पीढ़ी के लोगों को यह याद करने और बताने में मुश्किल होती थी कि उनके पहले राज्य का मुख्यमंत्री कौन था। उस समय तक बसु राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी एक विशिष्ट पहचान बना चुके थे। तब तक वे अस्सी पार कर चुके थे। उन पर बढ़ती उम्र का असर कहें या दबाव, पहली बार 1996 के चुनावों के समय ही नजर आया था। तब लोकसभा और विधानसभा चे चुनाव एक साथ ही हुए थे। बसु ने अपनी ढलती उम्र और गिरते स्वास्थ्य का हवाला देकर चुनाव नहीं लड़ने की इच्छा जताई थी। लेकिन पार्टी के दबाव के आगे उनको अंततः झुकना ही पड़ा। वे लड़े और लगातार पांचवीं बार जीते भी। लेकिन जीत का अंतर कम हो गया था। इसकी वजह थी इलाके के लोगों का असंतोष। जिस विधानसभा क्षेत्र से जीत कर कोई नेता लगातार पांचवीं बार मुख्यमंत्री बने, अगर उस इलाके में लोगों को ढांचागत सुविधाएं भी मुहैया नहीं हों तो असंतोष बढ़ना स्वाभाविक है।
नई ऊंचाइयों को छूने के बावजूद बसु हमेशा एक अनुशासित कामरेड रहे। पार्टी का निर्देश ही उनके लिए सबसे ऊपर होता था। ऐसा नहीं होता तो वर्ष 1996 में पार्टी का निर्देश मान कर उन्होंने चुपचाप प्रधानमंत्री की कुर्सी को हाथ से नहीं निकल जाने दिया होता। वह कुर्सी उनको तश्तरी में रख कर पेश की गई थी। बस, हां कहने की देर थी और बसु राष्ट्रपति भवन में प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे होते। बसु इसके लिए तैयार थे। लेकिन पोलितब्यूरो ने मना कर दिया। तब अगर उनकी पार्टी ने रोड़ा नहीं अटकाया होता तो आज इतिहास में एक और अध्याय जुड़ गया होता। सरकार का मुखिया नहीं बन पाने का मलाल बसु को जीवन भर कटोटता रहा। इसलिए बाद में अपनी जीवनी में उन्होंने इसे एक ऐतिहासिक भूल करार दिया।
वर्ष 2000 के पहले भी उन्होंने कई बार मुख्यमंत्री का पद छोड़ने की इच्छा जताई थी। लेकिन पार्टी के अनुरोध पर वे बने रहे। एक बार तो तत्कालीन महासचिव सुरजीत सिंह ने उको यह कह कर मना लिया कि आपके हटते ही राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाएगा। उन दिनों बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू होने की अटकलें तेज थीं। राज्य की कानून व व्यवस्था की स्थिति पर तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और बसु के बीच बाकायदा पत्र युद्ध छिड़ा था। तब तो वे मान गए। लेकिन उसके कोई दो महीने बाद ही उन्होंने पार्टी से सलाह-मशविरे के बाद सरकार से संन्यास का एलान कर दिया।
बसु ने बंगाल में लंबे अरसे तक राज किया। इसलिए उनकी बैलेंस शीट में उपलब्धियों के साथ नाकामियों का होना भी स्वाभाविक है। लेकिन अपनी तमाम खूबियों और खामियं के बावजूद ज्योति बसु अपने जीते-जी ही किंवदंती बन गए थे। वे आखिरी दम तक मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर पूरी शिद्दत से चलते हुए सिर्फ माकपा ही नहीं, ब्लकि पूरे वाममोर्चा के मसीहा और संरक्षक बने रहे।

No comments:

Post a Comment