Friday, June 25, 2010

अद्भुत है पुरी का समुद्र तट


पहली बार कोई 17 साल पहले पुरी गया था. बिना किसी योजना के ही. वह महज एक संयोग था और उसके पीछे कोलकाता में रहने वाले एक रिश्तेदार की प्रेरणा थी. पत्नी के साथ इलाज के सिलसिले में सिलीगुड़ी से कोलकाता आया था. डाक्टर ने कोई जांच कराने को कहा था और उसकी रिपोर्ट सात दिनों के बाद आनी थी. अब समस्या यह कि क्या करें. सिलीगुड़ी लौट जाएं या कोलकाता में ही घर बैठे बोरियत से जूझते रहें. इसी उधेड़बुन में फंसा था कि उन रिश्तेदार ने ही हमारी मुश्किल आसान कर दी. यह कह कर कि आप लोग दो-चार दिनों के लिए पुरी क्यों नहीं घूम आते. घूमना भी हो जाएगा और तीर्थ भी. इसके अलावा समय का सदुपयोग भी हो जाएगा. यानी आम के आम और गुठली के दाम. उन्होंने ही होटल और पंडे का पता दे दिया. खैर, थोड़ी सी कोशिश के बाद पुरी जाने-आने का रिजर्वेशन भी हो गया. बस चल पड़े हावड़ा से जगन्नाथ एक्सप्रेस में बैठ कर पुरी की ओर.
वह दिसंबर का महीना था. सिलीगुड़ी से हालांकि हम गर्म कपड़े और चादर वगैरह ले आए थे. लेकिन कोलकाता में सर्दी वैसे भी नहीं पड़ती. हमारे रिश्तेदार और मित्रों ने बताया कि पुरी में समुद्र होने की वजह से वहां भी सर्दी नहीं पड़ती. बस क्या था. हमने तमाम गर्म कपड़े कोलकाता में रख दिए और एक छोटी अटैची लेकर चल दिए. इसका अफसोस तो रास्ते में ट्रेन में तब हुआ जब सर्दी के मारे दांत बजने लगे. खैर, अपनी गलती पर खुद को मन ही मन डांटते हुए सुबह पुरी पहुंचे. स्टेशन के बाहर निकल कर पुरी होटल की बस में बैठ गए. वहां जाते ही कमरा भी मिल गया. ऐन समुद्र के सामने है पुरी होटल. कमरे की बालकनी से ही समुद्र की लहरें. दो-तीन दिन ठहर कर कोणार्क और दूसरे जगहों की सैर की. इतिहास में ही पढ़ा था कोणार्क. सूर्य मंदिर को सजीव देख कर मन मानो बरसों पहले स्कूली दिनों की ओर लौट गया.
हमारी वह यात्रा यादगार थी. इसलिए भी वहां से लौटने के बाद ही मेरी पत्नी मां बनी. वहां रहते हमने जगन्नाथ मंदिर के भी दर्शन किए. हमारे पंडे का नाम था चकाचक पंडा. उसका पूरा नाम तो था चकाचक रामकृष्ण प्रतिहारी. लेकिन चकाचक पंडा के नाम से ही उसे सब जानते थे. अपने उत्तर भारतीय पंडों के उलट वहां लूट-खसोट वाली प्रवृत्ति नहीं है. जो दे दिया, पंडा उसी में खुश.

उसके बाद कोई आठ-नौ साल पुरी नहीं जा सका. लेकिन तबादले पर कोलकाता आने के बाद बीते दस सालों में पांच बार पुरी हो आया हूं. एक बार तो नया साल भी वहीं मना चुका हूं. तब कोई सात दिन रहा था वहां. अब सबसे ताजा पुरी दौरे का कार्यक्रम बना जून के पहले सप्ताह में. अचानक. शादी की वर्षगांठ करीब थी. बेटी की कोचिंग की वजह से दो-तीन दिनों से ज्यादा समय नहीं निकलता था कि घर जाया जा सके. सो, पुरी जाने का कार्यक्रम बना लिया. होटल की भारी दिक्कत. पुरी में होटलों की तादाद जितनी बढ़ी है पर्यटकों की तादाद उससे कई गुना ज्यादा बढ़ गई है. दर्जनों फोन के बाद एक मित्र के जरिए होटल में कमरा मिल गया. पहले भुवनेश्वर पहुंचा. वहां कुछ देर आराम करने के बाद लिंगराज मंदिर होते हुए पुरी.
पुरी का समुद्र हमेशा आकर्षित करता रहा है. यह पूर्वी भारत के सुंदरतम और साफ-सुथरे समुद्र तटों में से एक है. लेकिन अबकी समुद्र का मिजाज बदला हुआ लगा. पुरी होटल के सामने तो समुद्र अपने तट को ही खा गया था. वहां गहराई पहले के मुकाबले ज्यादा हो गई है. अभी बीते साल मार्च में वहां गया था तब ऐसा नहीं था. तब हमने वहां नहाते हुए घंटों बिता दिए थे. लेकिन अब वह जगह खतरनाक हो गई है. ग्लोबल वार्मिंग का असर यहां नजर आने लगा है. लहरें लौटते हुए अपने साथ जबरन भीतर खींचने का प्रयास करती नजर आईं. पहले मैं जिस स्वर्गद्वार इलाके को सुनसान मानता था वही अब गुलजार हो गया है. पुरी होटल या उसके आसपास कोई दूसरा होटल नहीं मिल पाने की वजह से मन में कुछ निराशा थी. लेकिन वह निराशा वहां जाकर दूर हो गई. अब तो जहां होटल था वहीं नहाने वालों की भीड़ थी सामने. रात को समुद्री वस्तुओं का बाजार भी वहीं लगता था.
पहले दिन तो दोपहर को पहुंचवे के बाद होटल में खाना खाकर कमरे से ही समुद्री लहरों का नजारा लेते रहे. शाम को मंदिर की ओर निकले. दूसरे दिन शादी की वर्षगांठ थी. उस दिन सुबह-सुबह मंदिर में दर्शन करने के बाद भोग चढ़ाया. गर्मी काफी थी. ऐसे में मंदिर से लौटने के बाद समुद्र की ओर जाने की हिम्मत नहीं हुई. पहले कई बार तपते बालू पर अपने पैर जला चुका हूं. इस बार नहीं, मैने सोचा. तीसरे दिन वापसी थी. लेकिन ट्रेन रात को 11 बजे थी और पूरे दिन हमारे पास करने के लिए कुछ था नहीं. तड़के होटल से निकले सूर्योदय का नजारा देखने के लिए. लेकिन बादल ने सूरज को अपनी ओट में ढक रखा था. जब तक बादल छंटे, सूरज काफी ऊपर आ गया था. खैर, वहीं बैठ कर चाय पीते रहे. कुछ देर बाद होटल से कपड़े बदल कर नहाने पहुंचे. कोई घंटे भर नहाया. पत्नी और बेटी के साथ. लेकिन लहरें काफी तेज थीं. वह तो बाद में पता चला कि अंडमान में उसी दिन भूकंप आया था. शायद उसी का असर हो.
शाम को भी हम घंटों समुद्र के किनारे घूमते रहे. पुरी की सुबह अगर खूबसूरत है तो शाम का भी कोई जवाब नहीं. बंगाली पर्यटकों की भरमार. खासकर समुद्री मछलियां बेचने वाले ठेलों और उड़ीसा हैंडलूम की दुकानों पर. पुरी जाने पर लगता है कि कोलकाता के ही किसी कोने में हैं. बस एक समुद्र भर का ही अंतर है.
पुरी अब तक जितनी बार गया हूं, वहां की खूबसूरती से मन नहीं भरा है. हर बार, वापसी के दौरान दोबारा जल्दी ही लौटने का संकल्प मन ही मन दोहराते हुए आता हूं. लेकिन अब तो शायद अगले कम से कम दो साल कहीं जाना संभव ही नहीं, बिटिया 11वीं में है. उसका स्कूल, कोचिंग और सौ सांसरिक झमेले. लेकिन जब भी मौका मिला, जल्दी ही जाऊंगा. समुद्र में नहाने नहीं, तो वहां उस पर ग्लोबल वार्मिंग का असर देखने.कोलकाता से सात-आठ घंटे का ही तो सफर है.

3 comments:

  1. सुदर विवरण .. पढना अच्‍छा लगा !!

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  2. अच्छा लगा पढ़ कर जानकारी.

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  3. Badhiya ...mainay bhi puri ka anand liya ...lekin pando kay chakkar say bachkar .. waisay odisa tourist place honey ki wajah say thug har jagah baithay hai jiskay changool may aap phasay wo thug hi lega..

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