अक्सर जीवन और रोजमर्रा के कामकाज में जाने-अनजाने वही सब हो जाता है जो हम नहीं चाहते. इसकी एक मिसाल काफी है. कई बार दुकान पर कपड़े या कोई सामान खरीदते समय हम दस में नौ बार वही सामान खरीद लेते हैं जो हमें कम पसंद होता है. खरीदने के बाद रास्ते भर अफसोस करते रहते हैं कि वो दूसरा वाला खऱीदा होता तो अच्छा होता. ऐसी न जाने कितनी ही घटनाएं होती रहती हैं जो जीवन की भागमभाग में मन से बिसर जाती हैं. मेरा पत्रकारिता में आना भी कुछ ऐसी ही घटना है. हां, लेकिन मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है.
अस्सी के दशक में उत्तरार्ध में मैं सिलीगुड़ी में रह कर इलेक्ट्रानिक्स का डिप्लोमा कर रहा था. स्कूल के दिनों का मेरा एक सहपाठी था. श्रवण कुमार अग्रवाल. उसका वहां सीमेंट का कारोबार था. हमने सिलीगुड़ी हिंदी स्कूल में कक्षा पांच से दसवीं तक पढ़ाई साथ ही की थी. अब भी हम लगभग रोज ही मिलते थे. सुबह हिंदी स्कूल के मैदान में सैर करना हमारी दिनचर्या बन गई थी. उससे दुनिया-जहान की तमाम बातों पर चर्चा होती थी. एक दिन उसने यूं ही कहा कि अरे भाई तुम्हारी हिंदी और अंग्रेजी इतनी अच्छी है. शाम को खाली समय भी है. तुम जनपथ समाचार में काम क्यों नहीं करते. उस समय सिलीगुड़ी से यही एक हिंदी अखबार निकलता था. अब भी यह नंबर वन है वहां. उसके मालिक हैं राजेंद्र बैद. तब उनका लड़का विवेक छोटा था. राजेंद्र बाबू ( सब लोग उको इसी संबोधन से पुकारते थे) ही सब काम देखते थे. श्रवण ने बात चलाई तो मैंने भी सोचा देखने में हर्ज ही क्या है. जंचा तो ठीक वरना अपने इलेक्ट्रानिक्स वाला रास्ता तो खुला ही है.
खैर, श्रवण अगले दिन मुझे साथ लेकर राजेंद्र वैद के पास पहुंचा. उन्होंने मुझे एक पन्ना दिया. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के लिए. मैंने वहीं फौरन उसका अनुवाद कर दिया. अनुवाद देखते ही उन्होंने कहा कि कल से काम पर आ जाओ. चार सौ रुपए वेतन मिलेंगे. चार सौ रुपए तब बड़ी बात थी. मैंने हामी भऱ दी. अगले दिन ठीक समय पर काम पर पहुंच गया. उस दिन राजेंद्र बाबू ने मुझे मध्यकालीन इतिहास की एक पुस्तक थमा दी. वह अंग्रेजी में थी. राजेंद्र बाबू ने कहा कि तुम रोज इसका अनुवाद करोगे और वही पहले पेज की बाटम स्टोरी होगी. फिर क्या था. इतिहास के पन्नों से शीर्षक वह कालम चार रोज बाद से शुरू हो गया. वह कोई तीन महीने चला. इसबीच, मैंने पूरी किताब का अनुवाद कर दिया.
उस समय दार्जिलिंग में अलग गोरखालैंड आंदोलन का दौर था. वहां एक साथी थे मनोज राउत. वे गोरखालैंड आंदोलन को शुरू से ही कवर करते आ रहे थे. वे बांग्ला में अपनी कापी लिखते थे. उसके अनुवाद का जिम्मा भी मेरे कंधों पर आ गया. राजेंद्र बाबू अक्सर कहते थे कि यार तुम इतनी जल्दी हाथ से इतने पेज कैसे लिख लेते हो. खैर, काम चलता गया, पांव जमते गए. मेरे आने से कुछ एकाध पुराने लोगों को दिक्कत होने लगी. एक साथी थे. उनका नाम नहीं लूंगा. अब संपादक पद पर पहुंच गए हैं. काम जानते तो थे. लेकिन परले दर्जे के आलसी और फांकीबाज. दफ्तर से एडवांस लेकर बैग समेत टूर के लिए निकलते और फिर घर चले जाते. वहां से दो दिनों बाद टूर पर जाते. लौट कर दो दिन घर पर आराम फरमाने के बाद दफ्तर आ जाते. बैग हाथों में होता था. यह जताने के लिए कि सीधे टूर से ही आ रहा हूं. उसके बाद थके होने की बात कह कर घर चले जाते थे. यानी उस दिन की भी छुट्टी.
एक बार बड़ा मजेदार वाकया हुआ. वे दफ्तर से पैसे लेकर टूर के लिए निकले और अपनी आदत के मुताबिक घर पहुंच गए. अगले दिन उन्होंने राजेंद्र बाबू को बाकायद फोन पर बताया कि मैं सकुशल फलां जगह पहुंच गया हूं. लेकिन आधे घंटे बाद राजेंद्र बाबू किसी काम से निकले तो देखा वह सज्जन महानंदा ब्रिज पर पान चबाते हुए स्कूटर पर तफरीह कर रहे हैं. उनकी पोल खुल गई. इन तमाम चीजों के बावजूद दफ्तर से बाहर हम दोनों की दोस्ती बनी रही बल्कि और प्रगाढ़ हो गई थी.
राजेंद्र वैद बड़े भुलक्कड़ थे. पान पराग बहुत खाते थे. हमेशा हाथ में बड़ा सा डिब्बा रखते थे. जब संपादकीय विभाग में आते थे तब भी. और दस में से नौ बार डिब्बा हमारी मेज पर छोड़ जाते थे. उनके जाते ही हम लोग टूट पड़ते उस डिब्बे पर. जिसको जितना मिला मुंह में दबा लेते थे. बाद में चपरासी से डिब्बा उन तक भिजवा देते थे. इसी तरह उन्होंने दर्जनों कलमें संपादकीय में छोड़ी होंगी. यह बात अलग है कि उनमें से कोई भी कलम दोबारा उन तक नहीं पहुंची. पैसे के मामले में दरियादिल. जितना एडवांस चाहिए, दे देते थे. फिर धीरे-धीरे वेतन में कटता रहता था. कई बार तो देकर काटना तक भूल जाते थे. वहीं रहते उन्होंने मुफ्त में नई साइकिल दिलाई और बाद में जमीन खरीदने के लिए रुपए भी दिए.
जनपथ में काम करते दोस्ती तो बनी रही. लेकिन व्यस्तता की वजह से श्रवण कुमार से मुलाकातें कम हो गई थी. उसने मेरा परिचय अखबारी दुनिया से कराया था. इस बात के लिए मैं उसका हमेशा आभारी रहा. बाद में एक छोटी से घटना की वजह से दोस्ती टूट गई. एक दिन में हमेशा की तरह मैं उसके दफ्तर पहुंचा तो उसने कहा कि तुम अभी चले जाओ, मेरा भाई आ रहा है. उसकी यह बात सुनते ही मैं उल्टे पांव लौट आया. इस बात को 23-24 साल बीत गए. लेकिन मैंने दोबारा उसके दफ्तर में पांव नहीं रखा. आकिर मैं न तो कोई चोर-उचक्का था और न ही उससे कुछ मांगने गया था. बाद में गलती का अहसास होने पर उसने दर्जनों बार मेरे घऱ के चक्कर काटे. लेकिन न जाने क्यों दोबारा उसके दफ्तर की ओर जाने की इच्छा तक नहीं हुई.
बाद में जनपथ समाचार में हड़ताल हुई. कर्मचारियों ने अखबार का प्रकाशान हाथ में ले लिया. हमने महीने भर तक आधे पैसों में काम कर के अखबार निकाला. उसी दौरान गुवाहाटी से जीएल अग्रवाल आए. वे वहां से हिंदी अखबार निकालना चाहते थे और इसी सिलसिले में आए थे. जनपथ की लगभग पूरी टीम ही उनके साथ पूर्वोत्तर की राह पर निकल पड़ी. यह मार्च, 1989 की बात है.
Wednesday, June 30, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
संस्समरण अच्छा है। यह सच है कि कई बार हमारी नाव और कहीं चले जाती है।
ReplyDelete