कर्मचारियों की हड़ताल के बाद आखिर सिलीगुड़ी में जनपथ समाचार बंदी के कगार पर पहुंच गया था. उसी समय गुवाहाटी से जी.एल.अग्रवाल वहां आए. वे गुवाहाटी से पूर्वांचल प्रहरी नामक एक हिंदी दैनिक निकालना चाहते थे और उनको पत्रकारों और कंप्यूटर आपरेटरों, जिनको तब कंपोजिटर कहा जाता था, कि जरूरत थी. वहां बात हुई और बात बन गई. उन्होंने हम लोगों को गुवाहाटी आने का न्योता दे दिया. घर में विचार-विमर्श करने के बाद मैंने भी गुवाहाटी जाने की हामी भर दी. पहले कई बार गुवाहाटी गया था. अक्सर कामाख्या मंदिर में दर्शन करने. बचपन की धुंधली यादें थी. लेकिन अब पहली बार नौकरी के लिए जा रहा था. हमारी टीम में छह-सात लोग थे. न्यू जलपाईगुड़ी से चलकर शाम को गुवाहाटी स्टेशन पर उतरे तो लगा कि कहां पहुंच गए. तब उग्रवाद चरम पर था. हर ओर, सेना और सुरक्षा बल के मुश्तैद जवान. अब तक ऐसी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच रहने या गुजरने की आदत जो नहीं थी. खैर, वहां से जीएल परिसर में पहुंचे. वहां कुछ देर बातचीत के बाद हमको दिसपुर स्थित हास्टलनुमा आवास में भेज दिया गया. जीएल ने वहीं सबके रहने की व्यवस्था की थी. मैं और सत्यानंद पाठक एक ही कमरे में जम गए.
दूसरे दिन सुबह-सबरे नए उत्साह के साथ दफ्तर पहुंचे. वहां एक शर्मा जी कैंटीन चलाते थे. तीन से पांच रुपए में भरपेट भोजन. किसी मारवाड़ी ढाबे जैसे स्वादिष्ट खाना. सुबह नाश्ता, दिन में खाना और रात में वहीं से खाकर अपने कमरे पर. दफ्तर में कई नए साथियों से मुलाकात हुई. देश के कई हिस्सों से उभरते पत्रकार वहां पहुंचे थे. राकेश सक्सेना, अरुण अस्थाना, विवेक पचौरी, प्रशांत, फजल इमाम मल्लिक, जय नारायण प्रसाद उर्फ कुमार भारत समेत बाकी लोग थे. कइयों के नाम अब याद नहीं आ रहे. मुकेश कुमार वहां मुख्य उप-संपादक थे. (अब मौर्या टीवी में समाचार निदेशक) बेहद सरल स्वभाव. पहला दिन तो परिचय आदि में ही बीत गया. बीच-बीच में चाय-पानी का दौर. एक बड़ी से गोल मेज के चारों और तमाम लोग बैठ कर शुरूआती रूपरेखा के बारे में बातें कर रहे थे. हमारे संपादक थे कृष्ण मोहन अग्रवाल. थे तो गोरखपुर के लोकिन इलाहाबाद में अमृत प्रभात में लंबे अरसे तक काम किया था. बेहद सीधे-सादे तो थे ही एक पेशेवर फोटोग्राफर भी थे. एक से एक तस्वीरें खींची थी उन्होंने. हां, उनमें महिलाओं की तस्वीरें ही ज्यादा थीं. अब का दौर होता तो फैशन फोटग्राफर कहलाते.पहले दिन वहां का माहौल बेहद पसंद आया. उसके बाद यही दिनचर्या बन गई. रोजाना सुबह से शाम तक खबरें बनती और एडिट होती.
यूं ही दिन बीतते रहे और अखबार के प्रकाश की तारीख टलती रही. इसबीच हमने डमी निकालना भी शुरू कर दिया. पहले 14 अप्रैल को बिहू के दिन अखबार निकलना था. वह टलता रहा. इसबीच, वहीं के एक प्रतिद्वंद्वी अखबार समूह सेंटिनल के मालिक को लगा कि यह बढ़िया मौका है. देश भर के पत्रकार यहां हैं तो क्यों न उनको तोड़ कर जीएल प्रकाशन से पहले ही अपना अखबार निकाल लिया जाए. तब उसके अंग्रेजी और असमिया अखबार थे. हां, खासी भाषा में भी एक अखबार निकलता था. बस, उसने मुकेश जी को पकड़ा और कार्यकारी संपादक बनने का प्रस्ताव दिया. मुकेश जी ने हम लोगों से बात की और हमारी आधी से ज्यादा टीम अगले दिन जीएल परिसर की बजाय सेंटिनल परिसर में पहुंच गई. पैसे ज्यादा मिल रहे थे. दो-तीन दिन वहां काम किया. अखबार के मालिक ने एक मकान में हमारे रहने की व्यवस्था की थी. लेकिन वहां पंखा नहीं था. अप्रैल के आखिर की गर्मी रात को सहना मुश्किल होता था. राजखोवा ने पहले दिन कहा था कि कल तक हर कमरे में पंखा लग जाएगा. लेकिन दूसरे दिन इस बात की याद दिलाने पर उसने कहा कैसा पंखा. वह आपलोग खरीद लीजिए. हमें झटका लगा. जब पहले ही अपनी बात से मुकर रहा है तो बाद में क्या होगा. पाठक जी और मैंने पूर्वांचल प्रहरी लौटने का फैसला किया. हमने वहां तब के महाप्रबंधक पुरकायस्थ से बात की और रातोंरात कार में अपना सामान समेट कर लौट आए. अबकी हमारा ठिकाना बना जीएल परिसर के पीछे ही एक मकान. वहां कई और लोग रहते थे. बाद में सेंटिनल पहले निकला और पूर्वांचल प्रहरी बाद में. यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सेंटिनल शुरू से ही कभी पूर्वांचल प्रहरी को पछाड़ नहीं सका. लेआउट के मामले में बेहतर रहने के बावजूद. जीएल अग्रवाल ने इसबीच कई और लोगों को बुलवा लिया था बिहार और दिल्ली से.
इन बाद में आने वालों में मनोरंजन सिंह उर्फ अपूर्व गांधी के अलावा अमरनाथ और ओंकारेश्वर पांडेय जैसे लोग थे जो प्रशिक्षु के तौर पर पटना से आए थे. इनके अलावा माया (इलाहाबाद) से आए प्रीतिशंकर शर्मा और कल्याण कुमार भी थे. कई संपादकीय सलाहकार भी आ गए. इनमें विनोदानंद ठाकुर थे तो बद्रीनाथ तिवारी (अब स्वर्गीय) भी थे. तिवारी जी हमारे पड़ोस के मकान में ही रहते थे. उनके साथ रहने कुछ दिनों के लिए रामदत्त त्रिपाठी (अब बीबीसी में उत्तर प्रदेश संवाददाता) भी आए. लेकिन वे कुछ महीनों में ही लौट गए. विनोदानंद ठाकुर तमाम लोगों को लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे. श्रीलंका में लिट्टे की समस्या पर संपादकीय पेज पर मेरा पहला अग्रलेख भी उन्होंने ही छापा था.
अप्रैल में असम में बिहू बेहद धूमधाम से मनाया जाता है. पूरा राज्य लगभर एक सप्ताह तक इसके रंग में रंग जाता है. हमारे लिए बिहू नृत्य एक नया अनुभव था. दफ्तर से लौट कर हमने न जाने कितनी ही रातें बिहू नृत्य देखते हुए बिताईं. पाठख जी हमेशा साथ रहते थे.
शुरूआती छह महीने बड़े तकलीफदेह रहे. सुबह 10-11 बजे दफ्तर पहुंचते थे और रात दो-ढाई बजे के पहले घऱ लौटना नहीं होता था. इतने तरह के लोग थे कि व्यवस्था बनाने में महीनों लग गए. बाद में चीजें धीरे-धीरे ढर्रे पर आने लगीं. इस दौरान पूर्वांचल से कई लोगों का सेंटिनल आना-जाना लगा रहा. उसी दौरान एक तीसरा हिंदी अखबार उत्तरकाल भी निकला जो घुनों के बल चलना सीखने से पहले ही असामयिक मौत का शिकार हो गया. वहां के कुछ लोगों को भी इन दोनों अखबारों में खपाया गया.
Saturday, July 3, 2010
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