कई बार अकेला होना भी अच्छा लगता है. खासकर शादी के बाद. इन दिनों पत्नी और बेटी रांची में हैं. मेरी बड़ी साली की तीसरी बेटी की शादी है. मैं तो जा नहीं सका. बंगाल में शहरी निकायों के चुनाव थे आज. इनको अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा जा रहा था. सो, मेरा जाना संभव नहीं था. वैसे, मेरी इन साली की बेटियों की शादी हमेशा उसी समय होती है जब कहीं न कहीं कोई चुनाव होते हैं. मसलन पहली बेटी की शादी के समय बंगाल में विधानसभा चुनाव थे. वर्ष 2001 में. खैर, पहली शादी थी. किसी तरह गया. दो-तीन दिनों के लिए. उसके बाद दूसरी बेटी की शादी भी हुई 2006 में. तब भी बंगाल में विधासनसभा चुनाव थे. नहीं जा सका. पत्नी और बेटी ही गई थी पटना. और इस बार भी यही हुआ. शनिवार को पत्नी और बेटी को रांची शताब्दी पर चढा़ कर घर लौटा तो अचानक कई काम नजर आने लगे.
लेकिन अकेले रहने का फायदा यह है कि आप घर में अक्सर कुछ ऐसी फिल्में भी देख लेते हैं जिनको देखने के लिए कभी सिनेमाहाल या मल्टीप्लेक्स में जाना संभव नहीं होता. पत्नी और बेटी के रहते मैं मूक-बधिर फिल्में देखने का आदी हो गया हूं. यानी रात को जब फिल्में देखता हूं तो इस डर से आवाज बंद रखता हूं कि उनकी नींद खऱाब न हो जाए. वह तो भला हो स्टार मूवीज वालों का कि नीचे अंग्रेजी में सब-टाइटिल्स दे देते हैं. लेकिन अकेले होने पर आप वाल्यूम जितना चाहें बढ़ा सकते हैं. तो इसी क्रम में मैंने आज यानी रविवार को वेकअप सिड देखी. गजब की फिल्म है यह.
जीवन में दोस्त तो कम ही मिले हैं. जो मिले भी हैं वे मुझे समझ नहीं सके. जिन दो-चार लोगों ने समझा था वो अब मेरे दोस्त नहीं रहे. मेरी नहीं, बल्कि उनकी अपनी गलती की वजह से. मेरी इच्छाओं, जरूरतों और दुख-सुख से किसी को कोई खास मतलब नहीं रहा. हालांकि मैंने अपने करीबियों की खुशी का हमेशा ध्यान रखा है. कभी सोचता हूं तो दुख होता है. लेकिन लगता है कि यही तो दुनिया की रीति है. इसका बुरा क्या मानना. कुछ दोस्त जिनको मैं अपना मानता था वे अब मेरे अपने नहीं रहे. दो-एक बढ़िया दोस्तों से बरसों से मुलाकात ही नहीं हो सकी. न जाने वे कहां हैं. पहले तो फोन और मोबाइल भी नहीं होता था. ई-मेल आदि की कौन कहे. अब मद्रास के एक दोस्त से शायद 25 साल बाद इस साल दुर्गापूजा के दौरान मुलाकात हो जाए. कौन जाने क्या होगा. इलाहाबाद पालीटेकनिक में मेरे साथ रहे रवि प्रताप साही और मद्रास में रूम पार्टनर रहे हेमंत वषिष्ठ बहुत याद आते हैं. इसी तरह सिल्चर वाला निर्मल भौमिक भी. लेकिन उनका कोई पता-ठिकाना नहीं है मेरे पास. शायद कहीं मिलना हो. जैसे इतने साल गुजरे, वैसे ही उनकी यादों के सहारे कुछ साल और सही.यादें ही तो जीने का सहारा होती हैं. किसी ने सच ही कहा है कि अतीत चाहें कितना भी दुखद हो, उसकी यादें मीठी होती हैं.
Sunday, May 30, 2010
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