Friday, August 7, 2009

काश! मोबाइल और पहले आया होता

(आज से तीन दिन बाद यानी दस तारीख को ब्लॉग लिखते तीन महीने पूरे हो जाएंगे. यह ब्लॉग की सौवीं पोस्ट है. ब्लॉग में आंकड़ों के लिहाज से मुझे अगर तेज नहीं तो बहुत सुस्त भी नहीं कहा जा सकता. सैकड़ा चाहे क्रिकेट में रनों का हो या फिर ब्लॉग में पोस्ट्स का, हमेशा अहम होता है. इसलिए सोचा इसमें राजनीति की बजाय कुछ पुराने अनुभव ही लिख दूं. कौन जाने किसी मित्र की नजर पड़ जाए इस पोस्ट पर.)
काश! मोबाइल और पहले आया होता. काश! आज की तरह ई-मेल और चैट का दौर और कुछ पहले आ गया होता. अगर इन दोनों में से कोई भी एक चीज दो दशक पहले हुई होती तो मुझे जीवन के कुछ बेहतरीन दोस्तों से बिछड़ना नहीं पड़ता. पत्रकारिता के लंबे अनुभव ने बताया है कि जीवन में बेहतर लोग कैरियर के शुरूआती दौर में ही मिलते हैं. अब ऐसा है या नहीं, नहीं जानता. इसकी वजह यह है कि अपने कुछ पूर्व सहयोगियों की नजर में मैं मुख्यधारा की पत्रकारिता में नहीं हूं. दिल्ली या हिंदी पट्टी में कभी नौकरी नहीं की, इसीलिए. मेरा अब तक का समय बंगाल, पूर्वोत्तर राज्यों, सिक्किम, भूटान और नेपाल की रिपोर्टिंग करते ही बीता है. लेकिन दिल्ली में अब कई अहम पदों तक पहुंचे लोगों को लगता है कि यह पत्रकारिता भी कोई पत्रकारिता है लल्लू. बहरहाल, मुझे इसका कोई दुख नहीं है. अब तक जो भी काम किया, उससे पूरी तरह संतुष्ट हूं. सही है कि जीवन में ज्यादा मौके नहीं मिले. जो मिले भी उनको भुनाने में कामयाब नहीं रहा. शायद हिंदी पट्टी या कथित मुख्यधारा की पत्रकारिता नहीं की थी--यही वजह रही होगी. लेकिन जब भी जहां काम किया मन लगा कर किया. बीते 18 वर्षों से ऐसे अखबार में हूं जहां लिखने-पढ़ने की पूरी आजादी है. जो भी लिखा, जस का तस छपा. राजनीति के इतर विषयों मसलन पर्यावरण, सामाजिक सरोकार और क्रिकेट पर भी खूब लिखा. क्रिकेट के एकदिनी और आईपीएल के कई मैच कवर किए इसी अखबार के लिए. अब तक जो किया उससे संतुष्ट हूं. अपनी खबरों की कतरनें रखना मैंने बहुत पहले छोड़ दिया था. अब न तो इतनी जगह है और न ही इसकी जरूरत. जरूरत की चीजें तो वैसे भी घर के कंप्यूटर में दर्ज हैं.
बहरहाल, मैं बात कर रहा था शुरूआती दौर की. सिलीगुड़ी से छपने वाले जनपथ समाचार में तीन साल की नौकरी के बाद गुवाहाटी से छपने वाले पूर्वांचल प्रहरी की लांचिग टीम के सदस्य के तौर पर मार्च, 1989 में जब गुवाहाटी पहुंचा तो वहां माहौल ही कुछ अलग था. देश के विभिन्न हिस्सों से आए युवा व प्रशिक्षु पत्रकारों के चलते वह टीम सही मायने में एक राष्ट्रीय टीम बन गई थी. बाद में हालांकि कुछ लोग सेंटिनल समूह के हिंदी दैनिक में चले गए तो कुछ गुवाहाटी को ही छोड़ गए. लेकिन वहां रहने वालों से मित्रता जस की तस रही. होली-दीवाली, तीज-त्योहार में एक-दूसरे के घर आना-जाना चलता रहता था. अक्सर ऐसी जुटान मेरे दो कमरे के किराए के असम टाइप मकान में होती थी. असम टाइप मकान का मतलब दीवारें टाट खड़ी कर उन पर सीमेंट की हल्की परत और ऊपर छत के जगह टीन. लेकिन तब वही महल लगता था. आखिर घर से पहली बार निकल कर अपनी कमाई से मकान किराए पर लेने का सुख ही कुछ और होता है. वहां बाथरूम दूर था. पानी की किल्लत थी. फिर भी महफिलें खूब जमीं. उसी मकान में दिल्ली से आए पत्रकार भी जुटते थे कई बार. उनमें से कुछ से अब भी संबंध हैं, कुछ रखना नहीं चाहते.
उसी दौर में विवेक पचौरी, प्रशांत, अरुण अस्थाना, आलोक जोशी और राकेश सक्सेना समेत कितने ही लोग आए थे गुवाहाटी. लेकिन उनमें से ज्यादातर नए आशियाने की तलाश में जल्दी ही लौट गए. सेंटिनल में काम करने वाले जयप्रकाश दंपती (जयप्रकाश मिश्र और उनकी पत्नी मधु) तो हमारे अजीज थे. बाद में एक बहुत प्यारी बेटी हुई थी उनको. बाद में वे गुवाहाटी से चले गए. उसके बाद बाद उनसे कोई संपर्क ही नहीं हो सका. वे गया के ही थे और उन्होंने प्रेम विवाह किया था. बाद में उड़ती-सी खबर सुनी कि जयप्रकाश को वहीं सरकारी नौकरी मिल गई है शायद.
फुर्सत के क्षणों में अजीजों का यह बिछोह बहुत सालता है. सेंटिनल में ही थे सुधीर सुधाकर, जो बाद में दिल्ली, बरेली और कई दूसरी जगहों पर घूमते हुए फिलहाल बी.ए.जी (अब शायद उसके न्यूज चैनल) में जमे हैं. अरुण अस्थाना बीबीसी होते हुए मुंबई में हैं और अक्सर बात होती है उनसे. लेकिन बाकी लोग एक बार बिछड़े तो फिर मिले ही नहीं. इनमें ही थे पूर्वांचल प्रहरी के कार्यकारी संपादक के.एम अग्रवाल, जो गोरखपुर के थे. अमृत प्रभात (इलाहाबाद) में लंबा अरसा बिताने के बाद वे गुवाहाटी आए थे. उनकी तरह ही कल्याण जायसवाल भी इलाहाबाद के थे.
पूर्वांचल में मार्केंटिग विभाग में काम करने वाली सुषमा सिंह और मेरी पत्नी के बीच काफी पटती थी. लेकिन सारनाथ में शादी के बाद वह मार्च, 1991 में गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर आखिरी बार मिली थी. उसके बाद रिपोर्टिंग के लिए बनारस जाने पर मैंने उसकी तलाश भी की. लेकिन कहीं से कोई सुराग नहीं मिला. वहीं एक पंजाबी कंपोजिटर थी सुरेखा सागर. काफी शर्मीली और सुंदर. हमारे फोटोग्राफर गोपाल मिश्र ने दफ्तर के नीचे बनी कैंटीन में चाय पीते हुए उससे पहली बार औपचारिक परिचय कराया था. फिर तो हमारी जो जमी कि पूछिए मत. किसी से ज्यादा बात नहीं करने वाली सुरेखा और मेरे बीच दुनिया-जहान के मुद्दों पर घंटों बातचीत होती थी. बाद में हमलोग एक बार उसके घर भी गए. सुरेखा के पिता नूनमाटी स्थित रिफाइनरी में काम करते थे. सुरेखा की शादी भी अमेरिका में बसे किसी एनआरआई से हो गई थी. तब से उसके बारे में भी कोई सूचना नहीं मिली.
तब दफ्तर के बाद समय काटने के लिए लोगों से मिलने-जुलने के अलावा कोई और साधन नहीं था. सरकारी दूरदर्शन अपने समय पर ही कार्यक्रम दिखाता था. बाकी कुछ था नहीं. उन दिनों की ही बात है. हर इतवार को सुबह एक सीरियल आता था-फिर वही तलाश. घर में तो टीवी था नहीं. लेकिन यह सीरियल शुरू होते ही हम मकान मालिक के घर भागते थे. हम पति-पत्नी ने शायद ही कोई एपीसोड मिस किया हो. हफ्ते में एक ही दिन तो आता था. बाद में लोग इधर-उधर बिछड़ते गए. जो बचे उनमें राजनीति घर करने लगी. जनसत्ता का कोलकाता संस्करण निकलने वाला था. कई लोग वहां चले गए. मुझे भी सिलीगुड़ी से काम करने का आफर मिला. घर लौटने के लोभ में मैं वहां चला आया. लेकिन अब भी कुछ मित्रों की यादें सालती हैं. बाद में यही सीखा कि उस समय की मित्रता निश्छल थी. आजकल की पत्रकारिता में तो मुंह में राम बगल में छुरी वाले मित्र ही ज्यादा मिलते हैं. काश! वो दिन फिर लौट आते. या फिर उन मित्रों में दो-चार फिर मिल जाते. उनके साथ बैठकर नब्बे के दशक की शुरूआत के उन दिनों को एक बार फिर जी लेता.

2 comments:

  1. यादें सच में कसमसाहट दे जाती हैं

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  2. जारी रखिए..यादो का सफर. कहीं किसी मोड़ पर हम भी मिले थे और हमेशा के लिए आपके आत्मीय व्यवहार ने अपना बना लिया। यादें ना हों तो कितना खालीपन लगता है। यादो की पोटली में जीने का बहुत सामान भरा होता है....
    गीताश्री

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